कट गई है लहर
जाने क्यूँ कुछ ऐसा-ऐसा लगता है
कि जैसे कट गई लहर नदी से,
वापस न लौट सकी है,
और ज़िन्दगी इस कटी लहर में धीरे-धीरे
तनहा तिनके की तरह बहती
कुछ कहती चली जा रही है ...
" व्यर्थ है, सब व्यर्थ,
जो भी बोया, जो भी पाया,
व्यर्थ है सब ..."
हर सोच में है तिरोहित आशंका
हर साँस में है थिरती उसाँस निराशा की
पूर्णिमा का चाँद भी थिरकता है कुछ ऐसे
कि मानो धरती भी स्वयं में सिमटती-सी,
अनासक्त,
अपरिचित-सी मुँह फेर लेती है उससे ।
इस पर भी क्यूँ लौट आई हैं आज
लावारिस आकांक्षायों में लिपटी
वही पुरानी प्यासी प्रत्याशाएँ ?
इनको तो मैं कब से बहुत पुराने
कटु अनुभवों के मलबे के ढेर के नीचे
अतीत की गहरी
लम्बी काली कुहरीली सुरंग की दरारों के बीच
दबा-दबा कर, ठूँस-ठाँस कर छोड़ आया था,
उस सुरंग के सारे दरवाज़े भी मैं, सोचा तो था,
हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर आया था...
ऐसे में कैसे कोई आया, कब आया, क्यूँ आया ?
किसने आकर झटके से तोड़ दीं यह सांकलें सारी ?
मुझको सहने दो, यहीं रहने दो,
नदी से कटी इस लहर में अकेले तिनके-सा बहने दो,
स्वयं से निसम्बन्ध अभी,
"उस" कम्पनमय मार्मिक चोट से अवचेतन रहने दो ।
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विजय निकोर
Comment
क्या कहने है आ० विजय निकोर जी, बहुत ही सारगर्भित कविता रची है. रचना और रचनाकार दोनों को नमन.
आदरणीय अशोक जी:
कविता की सराहना के लिए धन्यवाद और आभार।
विजय निकोर
सुन्दर भाव प्रस्तुत करती रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय निकोर जी.सादर.
आदरणीय प्रदीप जी,
कविता के भाव आपको अच्छे लगे, इस सराहना के लिए मैं आपका आभारी हूँ।
विजय निकोर
ऐसे में कैसे कोई आया, कब आया, क्यूँ आया ?
किसने आकर झटके से तोड़ दीं यह सांकलें सारी ?
मुझको सहने दो, यहीं रहने दो,
नदी से कटी इस लहर में अकेले तिनके-सा बहने दो,
स्वयं से निसम्बन्ध अभी,
"उस" कम्पनमय मार्मिक चोट से अवचेतन रहने दो ।
आदरणीय विजय जी,
सादर
सुन्दर भाव की रचना
बधाई.
आदरणीय गणेश जी,
इस कविता के लिए आपने उदार सराहना दे कर मुझको संबल दिया है,
और "और भी" अच्छा लिखने का प्रोत्साहन दिया है। आपका शत-शत धन्यवाद।
विजय निकोर
बिम्ब और प्रतीकों के मध्य रचना एक नया आयाम बनाती हुई प्रतीत होती है, शब्द संयोजन और भावों का निरूपण रचना को एक अलग उचाई प्रदान करते हैं |
इस खुबसूरत अभिव्यक्ति पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय विजय निकोरे साहब |
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