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भौंरों के गुंजार से भी उठ रहा गहरा धुआं

पिंजड़े होकर सजग
देखते हैं आड़ से
धातुमय आवेग ताने
बढ़ रहा क्‍या भार से
एकरंगी ताल-पोखर
सांवली परछाईयां
भौंरों के गुंजार से भी उठ रहा गहरा धुआं
.
खिल ना पाते फूल भी अब
चांदनी कोसे किसे
कारवां देकर गया है
राह को कैसे नशे
दुधमुंहें बादल गरजते
दण्‍‍डमय किलकारियां
भौंरों के गुंजार से भी उठ रहा गहरा धुआं
.
तड़पते आंचल कहां तक
शोक गहरे ये चखे
तमतमाते बहरे खंजर
हाथ धो पीछे पड़े
रोशनी में हो रही गुम
लोरियों की क्‍यारियां
भौंरों के गुंजार से भी उठ रहा गहरा धुआं
.
धमक से ठमकी धरा भी
अपनी आंखें मल रही
धूल की मुट्ठी बड़ी नित
उसके ऊपर खुल रही
पत्‍थरों के निशाने
पर सभी फुलवारियां
भौंरों के गुंजार से भी उठ रहा गहरा धुआं
.
राजेश कुमार झा (मौलिक रचना)

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Comment

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Comment by राजेश 'मृदु' on January 15, 2013 at 5:36pm

आप सबका सादर आभार


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 10, 2013 at 4:21pm

आदरणीय राजेश झा जी, रचना बहुत ही प्रवाहमयी रची गई है, शब्द संयोजन ठीक ठाक है, भाव स्तर पर भी रचना अच्छी बन पड़ी है, बहुत बहुत बधाई इस अभिव्यक्ति पर |

Comment by अमि तेष on January 9, 2013 at 5:31pm
खिल ना पाते फूल भी अब
चांदनी कोसे किसे
कारवां देकर गया है
राह को कैसे नशे
दुधमुंहें बादल गरजते
दण्‍‍डमय किलकारियां
भौंरों के गुंजार से भी उठ रहा गहरा धुआं..........वाह 
Comment by Dr.Ajay Khare on January 8, 2013 at 4:10pm

rAJESH JI KHUBSURAT RACHNA BADHAI

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