मालिक ने इस दौड़ में यूं ही नहीं शामिल किया,
फ़क्त ये जानना ज़रूरी है कि किस काबिल किया |
कहते रहे जो ज़िंदगी भर खुदा ही आख़िरी ज़रुरत है,
उन्होंने अपनी रूह तक को भी ना हासिल किया |
बहुत कोशिशें की मगर पढ़ ना सके उस इबारत को,
जिन हर्फों ने राम और रहमान को फ़ाज़िल किया|
सोचा वो धुँआ थी, बिखर के मिल गयी हवाओं में
हर अधूरी ख्वाहिश को इस तरहा मुकम्मिल किया|
मैं ना ग़ालिब था, ना मीर ना ही और कोई शायर
कैसे अश्क बहाता मैं, उसने मुझे संगदिल किया|
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आपके प्रयास पर आपको बधाई!
सचमुच आज का आदमी अपनी आत्मा और अंतरमन के स्वर सुनने में भी असमर्थ एक पथराया हुआ जीव है . चंद्रेश जी ,बहुत ही सुन्दर भाव उकेरे हैं आपने . बधाई .
चंद्रेश कुमार जी
कहते रहे जो ज़िंदगी भर खुदा ही आख़िरी ज़रुरत है,
उन्होंने अपनी रूह तक को भी ना हासिल किया |..
बहुत सुंदर गज़ल ... हर पंक्ति सुंदर
आभार
सुदर अभिव्यक्ति............................
bhai ji ghazal bhi kahte hain khud ko shair bhi nahi mante ... aapki yah adaa bhaa gai :))))))))))
जीतेन्द्र जी, आपकी दाद के लिए तहे दिल से धन्यवाद |
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