एक पुरानी ग़ज़ल....
शायद २००९ के अंत में या २०१० की शुरुआत में कही थी मगर ३ साल से मंज़रे आम पर आने से रह गयी...
इसको मित्रों से साझा न करने का कारण मैं खुद नहीं जान सका खैर ...
पेश -ए- खिदमत है गौर फरमाएं ............
अब हो रहे हैं देश में बदलाव व्यापक देखिये
शीशे के घर में लग रहे लोहे के फाटक देखिये
जो ढो चुके हैं इल्म की गठरी, अदब की बोरियां
वह आ रहे हैं मंच पर बन कर विदूषक देखिये
जिनके सहारे जीत ली हारी हुई सब बाजियां
उस सत्य के बदले हुए प्रारूप भ्रामक देखिये
जब आप नें रोका नहीं खुद को पतन की राह पर
तो इस गिरावट के नतीजे भी भयानक देखिये
इक उम्र जो गंदी सियासत से लड़ा, लड़ता रहा
वह पा के गद्दी खुद बना है क्रूर शासक देखिये
किसने कहा था क्या विमोचन के समय, सब याद है
पर खा रही हैं वह किताबें, कब से दीमक देखिये
जनता के सेवक थे जो कल तक, आज राजा हो गए
अब उनकी ताकत देखिये उनके समर्थक देखिये
(बाहर-ए-रजज मुसम्मन सालिम)
Comment
shalini kaushik जी तहे दिल से ममनून हूँ
जनता के सेवक थे जो कल तक, आज राजा हो गए
अब उनकी ताकत देखिये उनके समर्थक देखिये
बहुत सार्थक प्रस्तुति .आभार
धन्यवाद राजेश कुमारी जी
पूरी ग़ज़ल और विशेष रूप से दो अशआर को विशेष रूप से पसंद करने के लिए और अपना कीमती समय इस रचना को देने के लिए आपका आभरी हूँ
जिनके सहारे जीत ली हारी हुई सब बाजियां
उस सत्य के बदले हुए प्रारूप भ्रामक देखिये
जब आप नें रोका नहीं खुद को पतन की राह पर
तो इस गिरावट के नतीजे भी भयानक देखिये----बहुत खूब!! हर अशआर में व्यंग्य के आवरण में एक सन्देश छिपा है बहुत पसंद आई यह ग़ज़ल ये दो शेर तो बहुत ही ज्यादा पसंद आये दाद कबूल करें वीनस जी
haardik aabhar
बहुत सुन्दर ग़ज़ल वीनस जी, समाज के विभिन्न आयामों की हकीकत बयान करते अशआर सब एक से बढ़ कर एक हैं. हार्दिक बधाई
Laxman Prasad Ladiwala
शुक्रिया आदरणीय
जियादा इंतज़ार नहीं करवाऊंगा
वादा रहा आपसे ...
Nilansh जी तहे दिल से आभार
अजय शर्मा जी
शुक्रिया
शुक्रिया
शुक्रिया
शुक्रिया
स्वागत है रहेगा इंतजार
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