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कहानी - नशा - वीनस केसरी

पांचवा दिन| घर बिखरा हुआ है, हर सामान अपने गलत जगह पर होने का अहसास करवा रहा है, फ्रिज के ऊपर पानी की खाली बोतलें पडी हैं, पता नहीं अंदर एकाध बची भी हैं या नही; बिस्तर पर चादर ऐसी पडी है की समझ नहीं आ रहा बिछी है या किसी ने यूं ही बिस्तर पर फेक दी है; कोई और देखे तो यही समझे की बिस्तर पर फेंक दी है, कोई भला इतनी गंदी चादर कैसे बिछा सकता है | शायद मानसी के जाने के दो या तीन दिन पहले से बिछी हुई है | बाहर बरामदे की डोरी पर मेरे कुछ कपड़ें फैले है | तार में कपड़ों के बीच कुछ जगह खाली है, कपडे गायब है, श्रीयांश के रहे होंगे |
साढ़े चार बज गए, श्रीयांश होता तो अब तक स्कूल से वापस आ गया होता ५ दिन से उसके स्कूल का भी नागा हो रहा है, मानसी को सोचना चाहिए | पहले भी इसी तरह जाती थी मगर तीन दिन में वापस आ जाती थी; ऐसा तो कभी नहीं हुआ की तीन दिन से अधिक रुकी हो | पहले तो श्रीयांश का स्कूल भी नहीं होता था, फिर भी दूसरे दिन फोन करने पर ही कहती थी “अच्छा कल आ जाउंगी” फिर इस बार क्यों...|उफ्फ... कुर्सी पर पड़े पड़े कमर अकड गई; थोड़ा टहल ही लूं... उठने की कोशिश में बेंत की कुर्सी जोर से काँपी और मैं फिर से धंस गया| कैसी बुरी आदत हो गई है; कुर्सी को कमरे और दालान के बीच डाल कर घंटों पड़े रहना और मानसी की गुस्साई आवाज़ का इंतज़ार करना “उठो भी”| आज भी शायद उसी “उठो भी” का इंतज़ार था, भूल ही गया था की “उठो भी” की आवाज भी मानसी के साथ ही पांच दिन पहले जा चुकी है और तीन दिन होने के बाद भी नहीं लौटी है| इस बीच दो ग़ज़ल कह ली, एक नज़्म और एक कविता भी लिख ली, आज तो कुछ लिखने का मन ही नहीं कर रहा,,, वैसे मानसी के जाने का एक फ़ायदा तो होता है ; थोड़ा एकांत मिल जाता है और कुछ लिखने पढ़ने का मन करता है, कल दूध वाला भी पूछ रहा था  “मालकिन नहीं लौंटी?” आज भी १ लीटर ही दूं ? तीन की जगह १ लीटर देने में बेचारे को बहुत कोफ़्त होती है सीधा सीधा आधा लीटर पानी का नुकसान होता है, आज तो दूध देने ही नहीं आया | क्या आज फिर से फोन करू ? कल भी तो किया था और परसों भी; मगर एक बार भी मानसी नें नहीं कहा “अच्छा कल आती हूँ” जाते समय तो उतना ही गुस्सा थी जितना हर बार होती थी; मगर जाते हुए कैसी बातें कर रही थी.. “अब तुम्हें किसी एक को चुनना ही होगा”
किन दो में से चुनना होगा? क्या चुनना होगा? क्यों चुना होगा? कुछ भी तो नहीं बताया, मगर शायद इसलिए की मुझे पता है किन दो की बात कही जा रही है |
पिछले चार दिन से “किसी एक को चुनना ही होगा” की प्रक्रिया चल रही है, समझ नहीं पा रहा की यह क्यों जरूरी है, जैसे इतने दिन से सब कुछ चल रहा है क्या आगे भी नहीं चल सकता ? क्यों चुनना है किसी एक को ? क्यों ? क्या मैं मानसी के बिना रह सकता हूँ, पता नहीं मैं कल्पना भी कैसे करू इस बात की| तो क्या फोन पर मानसी को कह दूं की, हाँ मानसी मैं तुम्हें चुनता हूँ, प्लीज़ अपने घर लौट आओ| सूरज ढल रहा है, उफ़! अब क्या जाऊँगा टहलने, अब तो कुछ काम ही किया जाए, किचन गया तो वह भी अपनी फूटी किस्मत पर जार जार रो चुकी बेवा की तरह लग रही थी, सफाई करने की सोच कर गया था मगर अब दराज़ से टोस्ट का पैकेट निकाल कर वापस कुर्सी पर आ गया हूँ फ्रिज से दूध का भगोना भी ले आया कल का थोड़ा सा दूध बचा है उसी में टोस्ट डुबो कर खाने लगा|
फिर से बरसात होने लगी है पानी की बौछार बरामदे से कुर्सी के पाए तक आ रही है, मानसी होती तो एक बार फिर से कहती “उठो भी” पिछले पांच दिन से जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे हैं मेरा फैसला दृढ होता जा रहा है की मैं सब कुछ छोड़ सकता हूँ मगर मानसी को नहीं | आज फोन करके मानसी को अपना फैसला सूना दूंगा | कमरे की ओर झुक कर घड़ी देखा; सवा पांच बज गए, फैसला करके मन थोड़ा हल्का हो गया तो आँख बंद करके कुर्सी पर ही लुढक गया |

-

७ बज रहे हैं हाँथ में एक लिफाफा और दूसरे हाँथ में कुछ कागज़ लेकर फिर से उसी कुर्सी पर बैठा हूँ लिफाफा अभी कोरियर वाला दे गया है | बारिश रुक चुकी है | इस बीच दूध का भगोना रखने किचन गया था तो थोड़ी सी सफाई कर दी, बिस्तर पर नई चादर डाल दी, बोतल में पानी भर कर फ्रिज में लगा दिए और बाहर बरामदे से कपडे ला कर अलमारी में रख दिए, किताबें फैली थी उनको भी समेट दिया की घर लौटने पर मानसी को उसका घर कुछ तो उसका लगे, फोन करने जा रहा था की जब कोरियर वाला ये लिफाफा दे गया
भेजने वाले का नाम मानसी देख कर दिल जोर से धड़क गया और अब खोलने पर अंदर से निकले ५ पन्नों में लिखावट भी मानसी की ही है, लिखावट पहचान कर इतनी देर से पढ़ने की हिम्मत ही नहीं हो रही है, पता नहीं क्या सूझी मानसी को खत लिखने की, उलट पलट के पढ़ना शुरू किया

रवि,

कैसे हो, जानती हूँ अच्छे से नहीं होगे, पूरा घर फैला होगा और मेरे लौटने की राह देख रहे होगे; पहले के दो दिन में कोई गज़ल, कविता, नज़्म, कहानी या ये सारी चीजें लिख चुके होगे, तुम्हें यह चिट्ठी देख कर अजीब लग रहा होगा, मैं पहले यह चिट्ठी तुम्हारे हाँथ में दे कर आना चाहती थी, मगर लिख ही न सकी, लिखी ही न गई | मगर अब जब तुम दो दिन से फोन कर रहे हो तो लिख रही हूँ| मैंने घर से जाते समय तुमसे कहा था तुम्हें अब निर्णय लेना पडेगा की तुम्हें क्या छोडना है क्योकि एक को तो छोड़ना ही होगा, मगर मैं गलत थी, हाँ मैं गलत थी, क्योकि मैंने तुमको मुझमें और तुम्हारी कलम में से एक को छोड़ने को कहा था, तुमको कविता, कहानी, गज़ल से दूर हो जाने की बात कह दी मगर जब सोचना शुरू किया तो कई बातें खुल कर समझ आने लगीं| याद करो, कालेज में हम पहली बार मिले थे और हमारे मिलने का कारण बनी थी वो कविता जो तुम सीनियर्स को इंट्रो के समय सुना रहे थे  आज भी उसी ओज के स्वर में ये अन्तिम पंक्तियाँ मेरे जेह्न में विचरती हैं
नहीं हटूंगा, नहीं डरूंगा, अपने कर्म के पथ से,
कभी तो मंजिल मिलेगी मुझको, होगा जय का घोष |
सीनियर्स के कई ग्रुप जो किसी जूनियर को नहीं बख्श रहे थे वो भी तुम्हारी कविता से प्रभावित थे, सम्मोहित थे | हमने कविता पर बात करनी शुरू की जो कविता से शुरू होती और राजनीति, धर्म, दर्शन और न जाने किन किन बातों पर खत्म होती | समय बीतता गया और हम नज़दीक आते गए, पहला साल बीतते बीतते हम जान गए की भावनाओं को दोस्ती के दायरे में रख पाना अब संभव नहीं है, तुम्हारी कविताओं से प्यार करते करते मैं तुमसे प्यार करने लगी और तुम भी तो कुछ ऐसा ही सोचते थे
फिर शुरू हुआ प्यार का सिलसिला, रूठने मनाने का सिलसिला, मैं रूठ जाती तुम एक बढ़िया सी कविता लिख कर सुना देते और मैं मान जाती, सिलसिला चल निकला मैं बार बार रूठने लगी; तुम बार बार मनाने लगे; हर बार एक नई कविता, नई नज़्म, नई कहानी, और कभी नई गज़ल; कभी कभी मैं बिना कारण के ही तुम्हारी नई कविता के लिए तुमसे रूठ जाती थी और इस तरह दो साल और बीते
चौथे साल मुझे इस बात का एहसास होने लगा की तुम्हारी कविताओं की धार खत्म हो रही है, जब तुम खुश रहते हो सामान्य रहते हो तो जो कुछ लिखते हो वो भी सामान्य सा ही रह जाता, कुछ कमी सी नज़र आती और फिर जब हमारा झगडा होता तो तुम मुझे फिर चौंका देते; फिर वही तेवर, फिर वही ओज ... इस बीच मुझे यह भी लगाने लगा की तुम छोटी छोटी बात पर झगड पड़ते हो, झिडक देते हो, बहस करते हो मगर मैं कारण समझ न सकी |समझ तो मैं शादी के पांच साल तक नहीं पाई, मगर अब समझ आ रहा है शायद तुम भी समझ गए थे की तुम्हारी कविता मर रही है, तुम्हे जरूरत थी दुःख की, उस दर्द की जो मुझसे दूर रह कर तुम्हें हासिल होता था, जो तुम्हारी कविताओं में फिर से प्राण फूक देता था| शादी के बाद भी यही सब होता रहा, तुम लड़ते रहे, झगड़ते रहे, बिगड़ते रहे | जब जब तुम्हें लगा तुम्हारी कविता मर रही है तुम मुझसे लड़ते | तुम्हें कहानी, कविता गज़ल या नज़म लिखने का नशा नहीं हैं | रवि, तुम्हें नशा है दुःख का, दर्द का, गम का | आज तुम इस बात को स्वीकार कर लो की तुम्हारी ज़िंदगी में इस नशे से बढ़ कर कुछ नहीं है | यह तुम्हारा नशा ही है जो तुमसे कलम उठवाता है, तुम्हारी लेखनी में आग भरता है दुःख का नशा ही है जो तुमको मजबूर कर देता है कुछ लिखने पर और यह नशा ही है जिसने हमारी जिंदगी को बर्बाद कर के रख दिया | मैं गलत थी जो मैंने तुमसे कलम को छोड़ने की बात कही| तुम लिखना छोड़ ही नहीं सकते, जब जब तुम दुःख का नशा करोगे तब तब तुम लिखने को मजबूर हो जाओगे| पता नहीं यह बात मैं अब समझ पाई हूँ या शादी के समय ही समझ गई थी, शायद समझ तब ही गई थी मगर स्वीकार आज कर पाई हूँ क्योकि तभी तो शादी के बाद ही हर तीन चार महीने में बात-बेबात तुमसे बहस कर के दो दिन के लिए पापा के घर आ जाती थी जिससे तुम्हारी नशे की खुराक तुम्हें मिलती रहे, तुम लिखते रहो, मगर मैं यह ना समझ सकी की तब क्या होगा जब तुम्हारा नशा बढ़ेगा
तुम गलतियाँ करते और तुम्हारे पास इसका कोई कारण न होता, गलतियों को दोहराना और माफी मांगना तुम्हारी आदत बन गई, तुम सोचते हर बार, तुम्हें हर कोई माफ कर दे, मगर कोई क्यों माफ करे तुमको बार बार| क्यों तुम्हारी बेवकूफियों को झेलते हुए तुम्हारे साथ रहे, क्यों तुम्हारे साथ निभाए|
तुम्हारे इस नशे की वजह से ही लोगों ने तुमको छोड़ना शुरू कर दिया, तुमसे दूर होने लगे, कटाने लगे और तुम ! तुम्हारी तो मन माँगी मुराद पूरी हो रही थी तुम्हारे दुःख का नशा पूरा हो रहा था तुम कविताएं लिख रहे थे,,,अच्छी कवितायेँ |
महीने घटते गए, हमारी बहस बढ़ती गई चार से तीन, तीन से दो, दो से एक महीना और अब एक महीने से घट कर १५-२० दिन  में तुम्हें तुम्हारा नशा चाहिए, अब नशे के बिना तुम्हारा सामान्य लिख पाना भी मुमकिन नहीं | बिना प्रताडित किये, बिना हाँथ उठाए तुम पर अब नशा भी तो नहीं चढता है
मगर अब मुझे तुम्हारे साथ साथ श्रीयांश के बारे में भी सोचना है ४ साल का हो रहा है स्कूल भी जाने लगा है| डरती हूँ की जब तुमको नशे की लत इतनी ज्यादा हो जायेगी की उसे मैं पूरा न कर सकूंगी तब क्या होगा | क्या तुम मुझे मार डालोगे ? या खुद को ? 

तुम इस नशे से मुक्त नहीं हो सकते और मैंने फैसला कर लिया है, तुमको इस नशे के साथ रहने के लिए इस बार हमेशा हमेशा के लिए छोड़ कर आई हूँ, मैंने पापा से बात कर ली है, श्रीयांश का एडमीशन यहाँ बगल के स्कूल में करवा दिया है, लौटने के लिए मत कहना, मैं पत्रिकाओं में तुम्हारे लेख, कवितायेँ पढ़ती रहूंगी
                                                                                                                                                              -मानसी
मेरा हाँथ थर थर काँप रहा था, आँखे जैसे अविश्वास से फटी जा रही थी  फिर धीरे धीरे मुंदने लगी, उंगलियां से पन्ने अपने आप फिसल गए और उंगलियां आँखों के कोर के पास पहुँच गईं| उठा और जाकर राइटिंग टेबल की कुर्सी पर बैठ गया और कलम उठा कर लिखने लगा ...

माना की सुबह के तो उजाले नहीं थे हम
ठुकरा दो हमको इतने भी काले नहीं थे हम

तोड़ा गया है मुझको अजब दिल्लगी के साथ
यूं अपने आप टूटने वाले नहीं थे हम

मंजिल के पास जा के हमें लौटना............

*** समाप्त ***
(मई २०१०)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 31, 2012 at 9:18am

वीनस जी यही तो इस कहानी की विशेषता है जिसके अंत ने हर पाठक को अपने नजरिये से सोचने पर मजबूर कर दिया की ये होता तो वो होता आदि आदि जिन्दगी की तरह कोई जरूरी तो नहीं की हर कहानी का अंत सुखद हो हर किसी को तो मुकम्मल जहां नहीं मिलता आप अगर इसका अंत सुखद बना देते जैसे की रवि मानसी को लेने चला जाता तो बात ख़त्म हो जाती पाठक भी उसी दिशा में सोचता पर पर दूसरा पहलू भी हो सकता है मानसी रवि की रचनाओं में उसकी मनोस्थिति का अंदाजा   लगा सकती है कि उसके बिना रवि कितना टूट रहा है अथवा उसके प्यार से ही उसकी नज्मों को शब्द मिलते हैं ये महसूस होने पर मानसी खुद ही लौट आये  या तीसरा पहलू रवि लिखना ही बंद करदे जिसकी वजह का इशारा बिना कहे मानसी तक पंहुचे और वो अपना फेंसला बदल ले |इस कहानी को ऐसे ही रहने दो इसका अंत  पाठकों पर छोड़ दो और हाँ इस रचना को तो आप असफल भूल कर भी मत सोचना 

Comment by राज़ नवादवी on October 31, 2012 at 8:32am

आदरणीय वीनस भाई: निष्कर्ष की बात की जाए तो यदि मैं रवि होता तो मानसी के खत को ताक पे रखता और रवाना हो जाता मानसी के पास. नजदीकियां बहुत सी गलतफहमियों को दूर कर देती हैं. रिश्तों को तो साथ रहके ही जिया जा सकता है, दूर रहके उनपे अफ़सोसखेज़ शाइरी की जा सकती है. ज़िंदगी का मकसद रिश्तों में जीना है, और जिंदगी को उसके मक़सूद तक ले जाना है, शाइरी नहीं. एक शाइर, सुखनवर, या फिर अदीब को जो चाहिए वो अपने तसव्वुर में पैदा कर सकता है, और अपने अहसासात में जी सकता है, इसमें ही वो आम लोगों से जुदा है- साथ रहते हुए, रिश्तों को निभाते हुए दूरियों और फुरकत की पीड़ा महसूस कर सकता है, बिना सोज़िश की आग में जले सोज़ां दिल के दाग दिखा सकता है. अगर ऐसा न होता तो दुनिया में जितने अदीब हैं, और जबकि तकरीबन सभी अदीबों की तरगीब जज्बातेदर्दोखलिश है, उस हिसाब से ये दुनिया दुःख के मुरझाए फूलों का गुलशन होती. एक औरत के प्यार का तर्ज़ मर्द के प्यार के तर्ज़ से जुदा होता है. मानसी जो चाहती है वो कुछ गलत नहीं, रवि जो करता है वो भी गलत नहीं, बस दोनों में एक दूसरे के प्यार का अकीदा पैदा होना चाहिए और इसमें रवि को ही इक्देमात करने होंगे! उसे मानसी के पास जाकर अपने खोए प्यार का विश्वास जगाना होगा! उसके मजरूह दिल पे मुहब्बत का मरहम लगाना होगा. उसकी गज़ल तो मानसी है, और उसकी नज़्म और रुबाई भी! 

माय बेस्ट विशेज़! 

Comment by वीनस केसरी on October 31, 2012 at 1:23am

आदरणीया राजेश कुमारी जी आदरणीय सौरभ जी व आदरणीय राज साहिब

यह कहानी लिखते समय मैं जिस मानसिक स्थिति से गुज़र रहा था वो मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता मगर  इसे लिखने के बाद तो मेरा अस्ल इम्तेहान शुरू हुआ
आप लोग जिन सवालात से घिरे हुए हैं मैं इनसे पिछले ढाई साल से घिरा हुआ हूँ,, कई कई महीने इस कहानी को भूलने की कोशिश की और फिर फिर निकाल कर पढ़ा,, कितने ही दफे इस कहानी का अंत बदलने की कोशिश की और कितनी ही दफे इसे कुछ सुधारने का असफल प्रयास किया
मेरी कुछ अत्यंत असफल रचनाओं में से एक यह भी है मगर मैं इससे उतना ही प्यार करता हूँ जितना खुद से ...शायद इसलिए भी कि इस काहानी के बाद मेरी सोच में कई बड़े बदलाव हुए पता नहीं इसमें इस कहानी का क्या योगदान रहा ...

साहित्य समाज का दर्पण होता है ... मगर यह कहानी अगर समाज का दर्पण बन जाये तो कैसी भयावह स्थिति होगी सोच कर सिहरन होती है
आगे क्या कहूँ इस कहानी के आगे कई बार मैं खुद निः शब्द हो जाता हूँ

सोचा था यहाँ आये कमेन्ट मुझे किसी निष्कर्ष तक पहुंचाएंगे मगर यहाँ तो स्थिति ही अगल है ....अब मैं कुछ और नए प्रश्नों से घिरा हूँ

Comment by राज़ नवादवी on October 30, 2012 at 2:45pm

अजीब है अदीबों की ज़िंदगी भी; कि अन्धेरा बनके आती है रौशनी भी. जो होते हैं सबब सुखनवरी के, वही हुए हैं अदू ज़ौकेशायरी के.

दुःख हुआ कहानी की इन्तेहा पे पहुँच के. क्या ये मुहब्बत की बेपनाही है कि माँगनेवाले को दर्द का पूरा ज़खीरा दे दिया जाए इस सच्चाई के बावजूद की देने वाला भी दर्द का एक सरापा मंज़र बन के रह जाएगा? या फकत मुहब्बत के परदे में पोशीदा खुदगर्जी है जो अपने साथी की शायरी से भी रकाबत कर बैठती है? सोचता हूँ, क्या अलहक़ ऐसा हो सकता है? और अगर हुआ तो कितना दर्दखेज और अफसोसनाक होगा! 

आपकी कहानी को पढ़कर जैसे सवालों का कोई जलूस सा निकल पड़ा हो, हाथों में सोजिश का परचम और आँखों में फ़िक्र का धुंआ लिए!

मर्हबा जनाब वीनस जी आपकी इस नस्रनिगारी पे! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 30, 2012 at 1:40pm

सूक्ष्म को स्थूल का निस्संदेह संबल या स्थूल द्वारा सूक्ष्म को आत्मीय संतुष्टि, इस ऊहापोह को आज तक न कोई कलाधर्मी साध पाया है, न ही समझा पाया है. सूक्ष्म सम्बन्धों की अपनी प्रक्रिया होती है, तो भौतिक स्वरूप के अपने धर्म हुआ करते हैं. दोनों इकाइयों के मध्य व्यावहारिक संतुलन की चर्चा हर युग, हर समय में होती है, किन्तु यह भी सही है कि ऐसा ’यूटोपियन’ क्षण सामान्यतः हर किसी के साहचर्य-जीवन में आता नहीं है. कम्प्रोमाइज फूहड़ ही सही, एक अन्यतम तरीका है. ..चलो इकबार फिर से अजनबी बन जायँ हमदोनों  नज़्म के उस अमर मिसरे की तरह... वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकीन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोडना अच्छा ..

वीनस ! .....   यार, तुम्हारी किसी गद्यात्मक प्रस्तुति से पहली बार गुजर रहा हूँ. और, सही कहूँ तो अपने इस नये रूप से आपने मुझे चकित किया है. एक अति गूढ़ सम्बन्ध का ताना-बाना बुनना इतना सहज नहीं है. वह भी ऐसा सम्बन्ध जिसका आधार किसी कलाकार (मैं रचनाकर्मी मात्र नहीं कहूँगा) का जीवित परिचय हो, और, जिसके प्रति स्वीकृति और अनुमोदन पूरक इकाई द्वारा सहर्ष मिल चुके हों.  सर्वोपरि तो आप ऐसे जीवन को भौतिकतः सैद्धांतिक रूप से ही जानते हो ! नहीं, मेरा यह कहना उचित नहीं, वर्ना, वह रचनकर्मी ही क्या जो वैचारिकता को इतना विस्तार न दे सके.. !

यह अवश्य है कि प्रसंग में शाब्दिकता थोड़ी अधिक हो गयी है. वैचारिकता आवृति में चली आती दीखती है. इसका संयमित निर्वाह हो सकता था. परन्तु, बिम्ब और कथ्य के इंगित इतने सान्द्र हैं कि इस पर कथांत में अधिक ध्यान नहीं जाता.

हार्दिक बधाई और अनेकानेक शुभकामनाएँ. ..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 30, 2012 at 12:45pm

वीनस जी निःशब्द कर दिया आपकी कहानी ने पढ़ रही थी तो लग रहा था की किसी की जिंदगी की मूक दर्शक बन घर के किसी कौने से चलचित्र की तरह सब देख रही हूँ लिखने का वो नशा जिसकी दवा भी दर्द और दुआ भी दर्द सब दिल से महसूस कर रही हूँ कहानी का पटाक्षेप हो गया है और मैं सोचती जा रही हूँ की कहानी के नायक को अब क्या करना चाहिए उसे क्या हक है की जिस दर्द के  घूँट से नशा करके वो जी रहा है उस दर्द का स्रोत उसके अपने बनें !!!

बहुत बहुत बधाई आपको इस कहानी के लिए |

 

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