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कैसे कह दूं

कैसे कह दूं हिंद हूं मैं

चीन हूं या अमरीका हूं

यूरोप शुष्क भावों की धरती

या अंध देश अफ्रीका हूं

प्रिय विछोह के विरह ताप से

सहस्‍त्र युगों तक तप्‍त रही मैं

निर्जनता के दु:सह शाप से

सदियों तक अभिशप्‍त रही मैं

लखकर तब मेरे विषाद को

दृग केशव के भर आए थे

असंख्‍य यक्ष गंधर्वों ने मिलकर

अश्रु के अर्ध्‍य चढ थे

मुरली से फिर जीवन फूटा

उल्‍लासित दशों दिशाएं थी

ओढ ओस की झीनी चदरिया

झूमी उनचास हवाएं थी

जागा स्‍वर जीवन का जल में

जागी रचना फिर अंबर में

कूदे छौने, थिरकी हिरणें

संग सजी सोने सी किरणें

हुई नहीं पूरी थी फिर भी

मेरी कामना, मेरी साधना

मानव, तुझे पाने की खातिर

तडप रही थी मेरी प्रार्थना

फिर मानव तू अवतीर्ण हुआ

सपना मेरा पूर्ण हुआ

दुख दर्द सकल अब दूर हुए

खुशियों से परिपूर्ण हुए

मिल गया दर्द को अदभुत विराम

बन गए व्‍यथा नयनाभिराम

हो गए भाव नीरस ललित

बनी रचना अक्षय ललाम

फिर मानव तू ही राम बना

औ वृंदा का घनश्‍याम बना

बने तुम्‍हीं नानक, पैगंबर

तू ही मेरी की संतान बना

कैसे बांटूं अब ममता को

काटूं किन तलवारों से

तुम लगे बांटने क्‍यांकर मुझको

प्रेरित हो किन ओछे विचारों से

मैं करूणा का दीपक जलता

मुझे हरपल यूं ही जलने दो

कृपा करो हे वीर व्रती अब

मुझे धरती ही बस रहने दो

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Comment by राजेश 'मृदु' on October 15, 2012 at 1:11pm

आप सभी की उपस्थिति से आनंदित हूं, बताई गई त्रुटियों को सुधारने की कोशिश निश्चित रूप से करता रहूंगा, सादर

Comment by Ashok Kumar Raktale on October 11, 2012 at 7:56pm

फिर मानव तू अवतीर्ण हुआ

सपना मेरा पूर्ण हुआ

दुख दर्द सकल अब दूर हुए

खुशियों से परिपूर्ण हुए

धरती कि अभिलाषा को प्रकट करती सुन्दर रचना के लिए बधाई स्वीकारें आद. राजेश कुमार झा जी.

Comment by Rekha Joshi on October 10, 2012 at 7:36pm

फिर मानव तू ही राम बना

औ वृंदा का घनश्‍याम बना

बने तुम्‍हीं नानक, पैगंबर

तू ही मेरी की संतान बना,सुंदर भाव लिए हुए इस रचना पर हार्दिक बधाई राजेश जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 10, 2012 at 6:14pm

भाई राजेश जी, धरती के मनोभाव को अभिव्यक्त करती आपकी प्रस्तुत रचना अपने भावों के हिसाब से बहुत ही सुन्दर बन पड़ी है. शिल्प के हिसाब से आप यदि इस रचना की पंक्तियों को मात्राओं का नियंत्रण दे दें तो इसका प्रवाह और सहज हो जाय. आपकी रचनाओं का कैनवास सदा से बड़ा होता है.  टंकण त्रुटि की ओर भी, भाईजी, संवेदनशील रहें. 
इस भाव-रचना की प्रस्तुति पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें.

शुभ-शुभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 10, 2012 at 12:39pm
राजेश कुमार झा जी आपकी यह कविता मन्त्र मुग्ध कर गई उन्नत भाव प्रवाह ...वाह कहीं कहीं टंकण त्रुटी हुई है ठीक कर लीजिये 
अश्रु के अर्ध्‍य चढ थे-----इसमें आप ने शायद चढ़ाए थे लिखा होगा जो पोस्ट के टाइम गलत हो गया होगा ऐसा मैं मानती हूँ ठीक कर लीजिये 

Comment by Vinita Shukla on October 10, 2012 at 12:07pm

बहुत सुंदर! धरती माँ की पीड़ा का मार्मिक बयान. बधाई स्वीकार करें.

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 10, 2012 at 11:16am

आदरणीय राजेश झा जी सादर प्रणाम
बहुत सुन्दर भावभिव्यकती
बधाई स्वीकारें

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 10, 2012 at 9:50am

बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति हार्दिक बधाई भाई श्री राजेश कुमार झा 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 9, 2012 at 5:35pm

बहुत बहुत सुन्दर प्रस्तुति आ. राजेश कुमार झा जी ,

धरती माँ की वेदना कि इतनी सुन्दर भावाभिव्यक्ति पढ़ ह्रदय आनंदित हो गया , आपकी लेखनी को साधुवाद ..

असंख्‍य यक्ष गंधर्वों ने मिलकर

अश्रु के अर्ध्‍य चढ थे........................बहुत सुन्दर 

इसे प्रवाह में लाने हेतु क्या ऐसे लिखना उचित होगा..

"असंख्य यक्ष गन्धर्वों नें मिल 

अश्रु अर्घ्य चढ़ाए थे ."

मानव, तुझे पाने की खातिर

तडप रही थी मेरी प्रार्थना...वाह 

फिर मानव तू ही राम बना

औ वृंदा का घनश्‍याम बना

बने तुम्‍हीं नानक, पैगंबर

तू ही मेरी की संतान बना... बहुत सुन्दर.

हर बंद बहुत सुन्दर भाव समेटे है, बार बार पढने का मन हो रहा है. हार्दिक बधाई इस अभिव्यक्ति पर .... पर इस प्रस्तुति को काव्य कि दृष्टि से अभी थोडा सा और साधने की आवश्यकता मुझे लगती है.

शुभकामनाएं 

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