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मेघ...संग ले चल मुझे भी
स्वच्छंदता के रथ पर बिठा के
उड़ा के दूर
उन्मुक्त, अनंत गगन में
अपनी प्रज्ञात ऊँचाइयों पर
सभी बंधनों से परे
निराकार, निर्विकार रूप में
व्यापक बना के अपने
नयनाभिराम नीलिमा से सुसज्जित
नीरवता की विपुल राशि
हिमावृत सदृश भवनों वाले
अप्रतिम बहुरंगी छटाओं से युक्त
मंत्रमुग्ध करते दृश्यों से शोभित
अथाह सौन्दर्य के मध्य विराजमान
अलभ्य संपदा से संपन्न
किसी स्वप्नलोक का भान कराते
आनंदातिरेक का भाव उत्पन्न करनेवाले
अनन्य, अनुपम लोक में |

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Comment

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Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 11, 2012 at 4:30pm
महिमा जी...कविता आपको पसंद आई, जानकर बहुत अच्छा लगा। आपका हार्दिक आभार...
Comment by MAHIMA SHREE on September 11, 2012 at 12:25pm

सभी बंधनों से परे
निराकार, निर्विकार रूप में
व्यापक बना के अपने
नयनाभिराम नीलिमा से सुसज्जित
नीरवता की विपुल राशि
हिमावृत सदृश भवनों वाले
अप्रतिम बहुरंगी छटाओं से युक्त
मंत्रमुग्ध करते दृश्यों से शोभित
अथाह सौन्दर्य के मध्य विराजमान
अलभ्य संपदा से संपन्न
किसी स्वप्नलोक का भान कराते
आनंदातिरेक का भाव उत्पन्न करनेवाले
अनन्य, अनुपम लोक में |....

वाह !! बहुत ही सुंदर वर्णन गौरव जी ... शब्दों का चयन भी लाजवाब .. बहुत-२ बधाई आपको 

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 11, 2012 at 11:25am
आदरणीय गुरुदेव, आपकी स्नेहपूर्ण एवं उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिये आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 11, 2012 at 9:54am

अनन्य, अनुपम लोक  का मनोहारी वर्णन हृदय को छू गया. भाव-दशा सुखद लगी.

शुभकामनाएँ

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