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प्रेम कसूरी उर बसै, वन उपवन मत भाग ,
मृग दृग अन्तः ओर कर, महक उठेंगे भाग ll1ll
**************************************************
आत्मान्वेषण है सहज, यही मुक्ति का द्वार,
बाहर खोजे जग मुआ, भीतर सच संसार ll2ll
**************************************************
पूरक रेचक साध कर, जो कुम्भक ठहराय ,
द्विजता तज अद्वैत की, सीढ़ी वो चढ़ जाय ll3ll
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वर्तमान ही सत्य है, शाश्वत इसके पाँव ,
नित्यवान के शीश पर, वक्त घनेरी छाँव ll4ll
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भूत बसे नहिं भविष जो, वर्तमान रम जाय ,
शुद्धोहं शुद्धो अहम् , राग वही मन गाय ll5ll
*************************************************
नित्यता और शुद्धता, जिस उर तह रम जाय,
निर्भेदी निर्मोह वह, ब्रह्म ज्ञान को पाय ll6ll
*************************************************
ब्रह्म ज्ञान अद्वैत है, हर कण एक समान ,
मुक्ति द्वार पहुँचा वही, जो साँचा विद्वान ll7ll
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Comment by Dr.Prachi Singh on September 3, 2012 at 4:57pm

यह दोहा रचना सराहने हेतु हार्दिक आभार संदीप पटेल जी 

Comment by PHOOL SINGH on September 3, 2012 at 2:20pm

 प्राची जी प्रणाम......

इन दोहों के लिय आपको कोटि कोटि प्रणाम के कहने अलावा  मेरे पास शब्द भी नहीं.......कुछ ही  शब्दों में आपने सब कुछ कह दिया........बहुत ही सुंदर.............

फूल सिंह

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 3, 2012 at 2:17pm

ब्रह्म ज्ञान और मुक्ति का द्वार बताते हुए रची सुन्दर काव्य रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ. प्राची जी

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 3, 2012 at 11:46am

ब्रह्म ज्ञान अद्वैत है, हर कण एक समान ,
मुक्ति द्वार पहुँचा वही, जो साँचा विद्वान ll7ll waah waah is sundar dohawali ki liye shaduwaad aapko aadarneeynaa Dr.

prachi ji

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