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कहीं धूप में जले लोग
कहीं बर्फ में गले लोग

दर्दो-ग़म की बस्ती में
तन्हाई के काफ़िले लोग

बारूदों की तल्ख़ धूप में
खूं-पसीने से गिले लोग

बिन जुर्म जो काटे सज़ा
वो सलीब की कीलें लोग

कुछ पड़े हैं लाशों जैसे
कुछ हैं गिद्द-चीलें लोग

सागर थे जो सूख गए
बचे रेत के टीले लोग

खूं भी नहीं खौलता अब
नहीं होते लाल-पीले लोग

पाप अधम के बाजों पर
नाच रहे रंगीले लोग

दुनिया की फुलवारी पे
उग आये कंटीले लोग

बिन पैंदे के लोटे सब
नहीं रहे हठीले लोग

कंचन वर्ण सी काया में
कलुष भरे पतीले लोग

नफस नफ़स ज़हर भरा
दिखते नही नीले लोग
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on January 12, 2011 at 4:33pm
बहुत खूब आशा दी !!! आपकी गज़ल अत्यंत प्रभावी और असरकारक है | समग्रता में कहूँ तो आपका साहित्य भाषा और भावपरक संवेदना के स्तर पर ह्रदय को छूता है | आप खूब लिखें लोकप्रिय हों यही कामना है |
Comment by Chhavi Chaurasia on May 16, 2010 at 1:46pm
कहीं धूप में जले लोग
कहीं बर्फ में गले लोग
दुनिया की फुलवारी पे
उग आये कंटीले लोग....
यह ऐसी रचना है जिसकी जितनी तारीफ की जाए कम है.
Comment by Anil Tiwari on May 5, 2010 at 3:55pm
kabhi log sochate hi ki hum se bedh ke koi nahi lekin aisa nahi hota
Comment by asha pandey ojha on May 5, 2010 at 9:56am
aap sabhee mahanubhwon ka housla afzai ke liye tahe dil se shukriya ..itna sneh paakr man bheega bheega sa ho utha hai ..ummeed kartee hun aapka ye sneh yoon hee milta rhegaa..aabhar..
Comment by Anil Tiwari on May 5, 2010 at 9:32am
ye khuda to itna majboor na kar vah -vah karne ko kyoki hame syari ko vah- vah karna hi hai
Comment by aleem azmi on May 3, 2010 at 1:07pm
bahut sunder rachna aapne likhi hai ...jitni tareef ki jaaye mam utni kam ... likhte rahiye
Comment by SUMAN KUMAR SINGH on May 3, 2010 at 10:37am
kya bat hai asha jee
Comment by विवेक मिश्र on May 2, 2010 at 6:13pm
आशा जी.. बहुत ही अच्छी ग़ज़ल लगी. इस तरह की नज्मों का आगे भी इंतज़ार रहेगा..
Comment by rakesh naraian on May 2, 2010 at 10:37am
सागर थे जो सूख गए
बचे रेत के टीले लोग
wah
wakai paramparayen samskriti samskaron ke pawan jal ko tyag ker hum veerane mein es banjar bhumi mein nistej pade hue hai un teelon ki tarah ..jinme hawa ke saath udker kahi aur jaker naya sthan talashne ki ichaa to baki hai magar humme wah bhi ab nahi ...asha ..aapki choti bahar ki ye gazal bahut umdaa hai ..

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on May 1, 2010 at 10:45am
आशा जी

छोटी बहर में ग़ज़ल कहना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है ! इतने कम अल्फाज़ में इतनी गहरी बात कह पाना हर किसी के बूते कि बात नहीं है ! आम तौर पर तकरीबन हर ग़ज़ल-गो गिनती पूरी करने के लिए एक आध शेयर ग़ज़ल में डाल दिया करता है, उस्ताद लोग ऐसे शेयरों को "भर्ती का शेयर" कहा करते हैं ! मगर आपकी इस पूरी ग़ज़ल में कोई भी "भर्ती का शेयर" नहीं मौजूद नहीं है, जिसके लिए मैं आपको मुबारकबाद देता हूँ ! सभी शेयर अपनी अपनी जगह मौजू हैं और एक से बढ़ कर एक हैं मगर आपके ये मुन्दर्जा ज़ैल (निम्नलिखित) आ'शर सीधे सीधे दिल-ओ-दिमाग पर चोट करते हैं, मेरी नज़र में यह हासिल-ए-ग़ज़ल शेयर हैं:

सागर थे जो सूख गए
बचे रेत के टीले लोग

बिन पैंदे के लोटे सब
नहीं रहे हठीले लोग

लेकिन आशा जी, इस ग़ज़ल का मतला और उस के बाद के दो शेयरों पर अगर अप ग़ौर फरमायें तो इन तीन शेयरों का काफिया-रदीफ़ बाकी के शेयरों से अलग है ! आपको मालूम ही होगा कि काफिया-रदीफ़ कि बंदिश ही ग़ज़ल कि आन बान और शान कहलाती है, बराए मेहरबानी इन शेयरों पर दोबारा से गौर फरमायें !

खलूस-ओ-एहतराम के साथ
योगराज प्रभाकर

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