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ओ विषधर! तुझमें कितना जहर है

तीखा विषैला हुआ आज नर है |
ओ विषधर! तुझमें कितना जहर है ||
 
जिसका काटा नहीं मांगे पानी,
विष थूकने में ना कोई सानी |
मत समझ दिल को अब तेरा डर है,
ओ विषधर! तुझमें कितना जहर है ||
 
द्वेष कुंडली मारे बैठा अन्दर,
बरबस बहाता रक्त का समंदर ||
डसता तू निज घर टूटने पर है,
ओ विषधर! तुझमें कितना जहर है ||
 
पदचाप जिसकी होती बिन आहट,
संग से उसके होती घबराहट ||
तेरे ऊपर पड़ जाती नजर है,
ओ विषधर! तुझमें कितना जहर है ||
 
भोगवस्तु मात्र बनी है नारी,
बदली प्रेम की परिभाषा सारी ||
अच्छा है तू सबसे बेखबर है,
ओ विषधर! तुझमें कितना जहर है ||
 

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Comment

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Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on July 30, 2012 at 11:45am

आदरणीय रक्ताले सर, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद......

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on July 30, 2012 at 11:44am

आदरणीय सुरेन्द्र शुक्ल जी, आपका कहना बिलकुल सही है....आभार.........जय श्री राधे

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 26, 2012 at 8:23pm

गौरव जी

           नमस्कार, आज के मानव की हकीकत को बयान करती सुन्दर रचना. बधाई.

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on July 26, 2012 at 4:58pm

भोगवस्तु मात्र बनी है नारी,

बदली प्रेम की परिभाषा सारी ||
अच्छा है तू सबसे बेखबर है,
ओ विषधर! तुझमें कितना जहर है ||
अजीतेंदु जी व्यंग्य से परिपूर्ण ...जीना सिखाती रचना ...काश ये विषधर नर या नारी होश में आ जाएँ 
जय श्री राधे 
भ्रमर ५ 

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