यूँ कभी कभी मन में उठती है तरंग
बार-बार कहता कुछ विचलित मन
मस्तिष्क पटल पर छा जाते वो साज सभी
कानों में आती गुंजन की आवाज़ कभी
दिखती है आँखों में बिजली सी चमक कहीं
लगता है खोया गया सर्वस्व यहीं !
देती है भाँवर सी फेरी वो कभी ख्यालों में मेरे
न जाने क्या पूंछा करती वो मुझसे साँझ सबेरे
बालों को लहरा के हवा आके छू जाती है मुझको
अपलक वो देखा करती पता नहीं क्यों खुद को
खिल गई कली चपला सी जड़ी
खो गई आसमा में समा सी खड़ी !
गर खुदा जिद में है तो नाखुदा कैसे जुदा
हर लहर में खड़ा वो गर कश्ती में खुदा
माना उठा समंदर में कभी सैलाब ऐसा
खो गया हो कोई स्वर कामना के बाढ़ जैसा
चल पड़ा हो ज्वार भी गर नदी की धार में
छा गए हों बादल आसमा के पार में !
तप रही है धरा तृषित जल की आस में
फंस गया है शून्य भी आज प्रेमपाश में
हो गया शीतल बदन ख्यालों में मिलन से
चल पड़ी है हवा खुशबू लिए अब चमन से
उठी है कोई तरंग दबा देती जो प्रभंजन
प्यास यूँ बुझती नहीं बिना लगे कोई अगन
है बात कैसी विदुर जो जले मिलके नयन
यूँ कभी शीतल हुई क्या सूर्य की तपन
टूटता तरु ख्यालों में फंस के लता के पाश में
उठी तब वेदना मधुर, मधु चाँद के आकाश में
छू लिए मधु प्याले को जब अधर मुस्कान से
चाँद से उतरी परी यूँ खेलती अनजान से !
गुथ रही डाल-डाल किसलयों का हाल कैसा
हवा-दवा रूप से उठा सागर में ज्वार ऐसा
फूल में शूल में, शूल कोई फूल में
लोटता कोई अबोध हर तरफ धूल में
खेलता शीशे से भला कोई खिलौना बना
देखता रखता उठाता थोबड़ा बौना बना !
बांस की डंडी हो कोई छेद कर दो
सरगम जैसे सारे स्वर भेद भर दो.
छा गया मधुमास आज मधुर प्याले में
उठ रहीं काली घटायें जलधि के किनारे में.
पकड़ को कोई लहर तुम समंदर की
बदली है फ़िज़ा आज मंदर की !
खो गई तपस्विन धरा ऊँचे उच्छ्वास में
बह चला सावन सुना होशो हवास में
देखकर कोई देखा नहीं जो लड़ी जुड गई
स्वप्निल अनुराग से वो गुदगुदी कर गई
देखकर कोई पुकारा खो गया सारा जहाँ
कहाँ कोई चाँद कहाँ मधु प्याला यहाँ !
मन अकिंचन फिर उसी मिथ्या मही में आ गया
कहाँ का प्रियपाश कहाँ स्नेह सारा खो गया
फिर वही स्वप्निल धरा मुस्कराकर बोली ज़रा
आ सावन पास मेरे कर पात पल्लव हरा !!
Comment
माननीया रेखा जोशी जी, हार्दिक आभार आपका.:)
है बात कैसी विदुर जो जले मिलके नयन
यूँ कभी शीतल हुई क्या सूर्य की तपन
टूटता तरु ख्यालों में फंस के लता के पाश में
उठी तब वेदना मधुर, मधु चाँद के आकाश में
छू लिए मधु प्याले को जब अधर मुस्कान से
चाँद से उतरी परी यूँ खेलती अनजान से !,खूबसूरत रचना ,लिखते रहिये ,शुभकामनाएं
बहुत बहुत धन्यवाद आपका आदरणीया राजेश कुमारी जी एवं श्रीमान अलबेला खत्री साब. :)
vistrit vishya par is satik rachna ke liye badhaai !
मन अकिंचन फिर उसी मिथ्या मही में आ गया
कहाँ का प्रियपाश कहाँ स्नेह सारा खो गया
फिर वही स्वप्निल धरा मुस्कराकर बोली ज़रा
आ सावन पास मेरे कर पात पल्लव हरा !! इन पंक्तियों ने तो मन मोह लिया बहुत खूबसूरती से प्रक्रति का सौंदर्य वर्णन किया है इस सुन्दर प्रवाह युक्त कविता के लिए बधाई ,हां कही कहीं टंकण त्रुटी व्यवधान पैदा कर रही हैं उनको ठीक कर लें
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