दिल एक रेलवे स्टेशन सा हो गया है......
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दिल एक रेलवे स्टेशन सा हो गया है. वो भी किसी छोटे से कसबे का जहाँ दिन में कुछ गाडियां ही आती जाती है, और दिन भर एक वीरानी सी पसरी होती है पटरियों पे. सारा दिन जैसे ३ बजे की लोकल का और शाम की मुंबई वाली पैसेंजर का इन्तेज़ार रहता है. थोड़ी देर की धड़कन, कुछ लम्हे की रौनक, कुछ मिनटों की भाग दौड़, और फिर मीलों लंबे समय का न कटने वाला साथ.
ज़िंदगी में सवारियों की तरह लोग भी आते जाते रहे, अपनी अपनी ज़रूरतों की गठरियां लिए, अपने अपने मुकामात के ख्यालों में डूबे, अपनी अपनी आँखों में बस अपना अपना ही लिए आए और चले गए. पीछे हर बार रह गयासाफ़ करने को इक ज़खीरा- मुसाफिरों के मुड़े चुडे अखबार, कागज़ की प्लेटें, पानी की खाली बोतलें और कही अनकही कहानियों के बोल जो हवाओं की खिड़कियों से पर्दों की तरह लहराते हैं.
आज का दिन भी जैसे किसी युक्लिप्टस के पेड़ सा खड़ा है. कितना साफ़, कितना लंबा, कितना खुश्क, और पुरानी यादों सा महकता हुआ. पीछे मुड़कर देखा तो युक्लिप्टस की कतारें जैसे थीं, खामोशियों से गोया सिगारकश और मेरे दिल में झाँकतीं- मंदिरों की शिखाओं पे पताकों की तरह लहरातीं. इमरोज़ (आज का दिन) के आईने में गुज़रे हर रोज़ का एक आईना है जिसमें मुस्तकबिल (भविष्य)की हज़ारों तस्वीरें नुमायाँ (व्यक्त) हैं.
कोई मेरे दिल के खंडहरों से अभी अभी निकल के गया. कौन था जो अब तक इन खंडहरों को आबाद किए था अपनी रौनक से. चेह्रे तो नज़र आते नहीं, कदमों की आवाज़ भी नहीं, बस कुछ नक्शेपा हैं जिनके पीछे मैं चल पड़ा हूँ. मेरे साथ मेरे खंडहरों की थोड़ी धूल, और माज़ी (अतीत) की बोसीदगी (प्राचीनता) है, अगर वो मुझे मिल भी जाए तो कैसे नवाजूँगा उसे, किस तरहा दो नज़रों के डूब जाने तक जिंदा रह पाउँगा.
© राज़ नवादवी
पुणे, १४/०३/२०१२
Comment
धन्यवाद रेखाजी, बहुत बहुत शुक्रिया. आपलोगों की बातें बहुत हौसला देतीं हैं.
राज़ जी .डायरी के पन्नो में लिखी दास्तान में दर्द भरा हुआ है ,सुंदर अभिव्यक्ति ,बधाई
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