बड़े प्रेम की छोटी सी प्रेम कहानी...
-------------------------------------------------
परछाईयों के पीछे आज फिर नज़र की रहलत (प्रस्थान) हुई, रोशनियों की शाहराह (चौड़ी राह) पे हम कुछ यूँ सफरपिजीर (सफर पे निकले) हुए. रात की सन्नाटगी, दरख्तों से हवाओं की सरगोशी (हौले से कानों में बात करना), चाँदनी का सीमाब (चांदी जैसा) सा पिघलता बदन, और फज़ा में उसकी यादों का लहराता आँचल- मैं गोया सफर-ए-इरम (इक काल्पनिक स्वर्ग की यात्रा) की ओर रवाँ होने को था.
ज़माना गुज़र गया है कूचा-ए-यार (प्रेमी की गली) का रुख किए. न जाने पहाडियों की तलहटी में बसा वो गाँव नींद के किस मुकाम पे अभी होगा. और उसके शबिस्ताँ (शयन्गाह) में ख़्वाब के कैसे तमाशे हो रहे होंगे, उसके रुख पे काकुलेपंचां (उलझी लटें) किस अदा से सो रही होगी, उसके दरीचे से चाँद कैसी हसरत से झांक कर उसे देखता होगा.
जब मैं आखरी बार उससे मिला था तो मुहब्बत रुसवा हो चुकी थी, मिलने की उम्मीदों का बिस्तर बंध चुका थाजैसे किसी सिपाही का बिस्तर बंधता है सरहद पे जाके लड़ने और क़ुर्बान हो जाने के लिए. मुहब्बत से नदामत (शर्मिंदगी), नदामत से हिकारत, और हिकारत से अजीयतोफजीहत(दर्द और मुसीबत) का सफर तो अब शुरू हुआ था. हमने पहली बार जाना था किसी को एकदम से पा कर खो देने का अलम कितना पुरआज़ार (दुःख से भरा) होता है. और ये भी कि ज़िंदगी में मुहब्बत करने की उम्र होती है या फिर हालात क्यूंकि अज्द्वाजी (दाम्पत्य) ज़िंदगी में किसी और की चाहत की इजाज़त नहीं है.
मेरी पत्नी मुझे लेने आई थीं, खामोशी से ये कहते हुए कि कुछ भी नहीं बिगड़ा है. दो दिनों की भाग-दौड़, तीन रातों की बेनीन्द मशक्कत, और टूट गए ऐतेबारों का बेजान मलबा- सब कुछ बहुत बोझिल और कसीदगी (तनाव) से भरा था. क्या ज़िंदगी में ऐसा भी हो सकता है?
हम इम्फाल एअरपोर्ट पंहुंच चुके थे. सिक्यूरिटी चेक के बाद एयरक्राफ्ट पे भी बैठ चुके थे. जहाज अब दौड़नेलगा, और कुछ देर में उड़ने भी. आसमान की ऊँचाइयों से नाम्बोल की पहाडियाँ नज़र आने लगीं थीं. ज़िंदगी में शायद आखरी बार उन्हें देख रहा था जो इतने करीब आके भी अब आहिस्ता आहिस्ता नज़रों से ओझल हो रही थीं. उठती हुई ऊचाइयों के साथ दिल में इक हूक से भी उठती गई और बढ़ती हुई दूरी के साथ इसकी खलिश भी जिसके दर्द का साया आज भी मुझमें हमागोश है.
ज़िंदगी की परछाईयों के पीछे भागने के सफर का वैसे तो ये इख्तेताम (अंत) था, मगर ये इक ऐसी दास्तानेमुहब्बत का आगाज़ (प्रारम्भ) भी था जिसने मेरे अंदर के शायर को फिर से इक नई ज़िंदगी दे दी.
मैं राज़ नवादवी बन गया!
© राज़ नवादवी
पुणे, १५/०३/२०१२
Comment
प्रिय गौरवजी, शुक्रिया आपका कि आपने मेरे लिए इतना वक़्त निकाला. दरअसल कहना चाहूँगा कि मेरी वैसी कोई मंशा नहीं जैसा कि आपने सोच लिया है. दरअसल मैं छुट्टियों पे था और मेरी रचनाएं एक अरसे से से साया होने की मुहताज थी. मैंने कहा- आओ मैं तुम्हारी मुहताजगी दूर कर दूं. ओबीओ का मग्नून हूँ इस खातिर. अब देखिए न पिछले कुछ रोज़ से मैंने कुछ भी पोस्ट नहीं किया है क्यूंकि फिरसे ज़िंदगी की आपाधापी में कहीं गुम हो गया हूँ. न जाने अब अगला मौक़ा कितने महीनों बाद मिले.
प्रिय राज जी
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online