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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १८

बुरा करते हैं और कहते हैं बुरा न मानना

बुतोंको सजदे करना है तो खुदा न मानना

 

प्यारकी इब्तिदा होती है इन्कारसे तोफिर

वफ़ा का अव्वल सबक है वफ़ा न मानना

 

तुम्हें क्या खबर कि हम जानतेहैं हालेदिल 

ये उनकी आदत है हमें आशना न मानना 

 

अहसाँ समझके ही दो टुक तो कुछ बोलिए 

भला कुबूल है पे ये क्या, भला न मानना 

 

मैं तो बस इत्तेफाक़से हमराह हो गया था

हमें अपना दोस्त याकि हमनवा न मानना

 

ज़रा संभल के छूना के हरारत भरी हुई है

मेरे अश्कोंको इतनाभी गुनगुना न मानना 

 

शायर हो अदीब, या कि हो कोई फलसफी

कितनेभी हों अजीब पे सरफिरा न मानना

 

खुद ही मना कीजिए तो बात बन जाएगी

राज़ उनकी खू है कोई इल्तेजा न मानना

© राज़ नवादवी 

भोपाल, २५/०५/२०१२

 

बुतोंको सजदे करना है तो- मूर्तियों के सामने सर झुकाना है तो; इब्तिदा- शुरूआत; अव्वल- प्रथम; आशना- अपना; हमनवा- साथ गाने वाला; हरारत- गर्मी; अदीब- साहित्यकार; फलसफी- फिलोसोफर; खू- आदत; इल्तेजा- निवेदन.  

 

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