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सोलह शृंगारों सजी, प्रकृति चंचला रूप .
उसकी मतवाली छटा, मन भाती है खूब ..
 
झरना झर-झर बह चले, मतवाली ले चाल .
मन में इक कम्पन करे, उसकी सुर लय ताल ..
 
कल-कल कर बहती नदी, मस्ती भर दे अंग .
वाचाला औ चंचला, बदले पल पल रंग ..
 
बारिश की बूंदों नहा, निखरा कैसा रूप .
अन्तः मन निर्मल करे, छाँव खिले या धूप ..
 
उढ़ता बादल कोहरा, मन ले जाए दूर .
बाहों में उसको भरूँ, कहता मन मगरूर ..
 
ओस बूँद भी झिलमिला, अपने पास बुलाय .
हाथों से जो छू लिया, शरमाए बल खाय ..
 
फूलों में खुशबू बसी, श्वांसों घोले प्यार .
दो अनजाने इक बनें, बदल पुष्प के हार ..
 
हरियाली की ओढ़नी, ओढ़े मातृ स्वरूप .
क्षत- विक्षत कर ओढ़नी, मानव करे कुरूप ..
 
झूम-झूम देखो कहे, गुलमोहर की डाल .
बाहों मेरी झूम ले, आ रे झूला डाल ..
 
काँटों में मुस्का रहे, हर पल सुन्दर फूल .
सुख- दुख सम रहना सदा, बात न जाना भूल ..
 
पीले पत्ते झड़ चले, वृक्ष खड़ा मुस्काय .
अटल नियति का हर नियम, क्यों फिर अश्रु बहाय ..
 
उमड़- घुमड़ बदरा करें, मन चंचल बेचैन .
टिप-टिप छप-छप भीग कर, लौटे मन का चैन ..
 
पर्वत हिम मस्तक सजा, चूम रहे आकाश .
सिद्ध संत कर साधना, बाँटें दिव्य प्रकाश ..
 
धरती की रक्षा करें, करें प्रकृति से प्यार .
प्रण ले यह जीवन जियें, करेंगे न संहार ..

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Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on June 25, 2012 at 12:32am

ओस बूँद भी झिलमिला, अपने पास बुलाय .

हाथों से जो छू लिया, शरमाए बल खाय ..
 
फूलों में खुशबू बसी, श्वांसों घोले प्यार .
दो अनजाने इक बनें, बदल पुष्प के हार ..
 
आदरणीया   डॉ प्राची जी प्रकृति का अनूठा चित्रण मानवीकरण ....प्यारी रचना ...बधाई 
सुन्दर ...भ्रमर ५ 

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on June 24, 2012 at 10:00pm

प्राची से ऊषा खिली,स्वर्ण थाल ले हाथ

किरणें जग को बाँटती,सूर्य देव हैं साथ |

प्राची लाती है सुबह और प्रतीची शाम

दौड़ धूप दिन कर रहा रात करे विश्राम |

सुंदर दोहे झूमते,आज प्रकृति के संग

हैं सोलह श्रृंगार में सोलह सोलह रंग |

अपने दोहों में प्रकृति के सभी रंग समेट लिये हैं. सौंदर्य देखते ही बन रहा है. टिप टिप छप छप का प्रयोग ध्वन्यात्मकता उत्पन्न कर रहा है."करेंगे न संहार" पढ़ने में जरा अटक रहा है, क्या  अंतिम पंक्ति " ये जीवन के मूल हैं,करें नहीं संहार" किया जा सकता है ?

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