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प्रियतम जब से मैंने प्रेम का आवाहन किया

प्रियतम जब से मैंने प्रेम का आवाहन किया 

करुण वेदना , विरह अश्रु , और मौन ने मेरा श्रृंगार किया 

कितनी संवेदना ,कितनी आह

कितने अश्रु , कितनी चाह

कितने आलाप , कितने गान

मिल कर भी

संतॄप्त न कर पाती

उर अरमनों में छिपे स्पंदन को,

प्रियतम जब से मैंने प्रेम का आवाहन किया 

सावन रिक्त , शशि सुप्त

सूरज न उग्र , रौद्र नयन हैं रुष्ट

प्रियतम जब से मैंने प्रेम का आवाहन किया 

करुण वेदना , विरह अश्रु , और मौन ने मेरा श्रृंगार किया 

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Comment by arunendra mishra on May 27, 2012 at 12:27am

रेखा जी ....रचना की सराहना हेतु धन्यवाद 

Comment by arunendra mishra on May 27, 2012 at 12:26am

राजेश कुमारी जी .....मैंने क्यों माना की प्रेम एक दर्द है मुझे भी नहीं पता ...परन्तु प्रेम  अलौकिक भाव है जिसका वर्णन  बड़ा ही मुश्किल है ....

Comment by arunendra mishra on May 27, 2012 at 12:20am

अरुण जी उत्साह वर्धन के के लिए धन्यवाद....!!!

Comment by arunendra mishra on May 27, 2012 at 12:17am

प्रदीप जी ....आप डरायिये मत ...मैंने भी कुछ नहीं किया ....!!!

Comment by MAHIMA SHREE on May 26, 2012 at 11:40pm

वाह वाह अतिसुंदर अभिवयक्ति ... आपके सभी शब्द बोल उठे है मिश्र जी ... बधाई स्वीकार करें

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 26, 2012 at 10:34pm

आदरणीय मिश्र्र  जी, सादर

अच्छा है मैंने ऐसा कुछ नहीं किया. बहुत सुन्दर भाव पूर्ण अभिव्यक्ति. दिल को  भा गयी 

बधाई 

Comment by Rekha Joshi on May 26, 2012 at 6:32pm

सुंदर भाव ,बधाई |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 26, 2012 at 5:28pm

सही लिखा  है ये अवस्थाएं   प्रेम के बाद ही शुरू होती है फिर भी प्रेम करता है इंसान ....बहुत सुन्दर प्रस्तुति 

Comment by Abhinav Arun on May 26, 2012 at 2:48pm

अच्छी शुरुआत श्री अरुणेन्द्र जी लिखते रहिये | शुभकामनाएं !!

कृपया ध्यान दे...

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