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बस्तियाँ हो गईं वीरान कहीं और चलें

शहर ये हो गया शमशान कहीं और चलें॥

बस्तियाँ हो गईं वीरान कहीं और चलें॥


कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई यहाँ,  

है नहीं कोई भी इंसान कहीं और चलें॥


जागने और जगाने की बात किससे करें,

यहाँ तो सोया है भगवान कहीं और चलें॥


कोई जोरू से कोई ज़र से ज़मीं से कोई,

हैं सभी लोग परेशान कहीं और चलें॥


आईना अंधों की बस्ती में बेंचने निकला, 

चल सकी न मेरी दूकान कहीं और चलें॥


दोस्त दुश्मन सभी चेहरे पे लगाए चेहरे,

कर सका मैं नहीं पहचान कहीं और चलें॥


वक़्त के साथ बदलते हुए चेहरे “सूरज”

देख के मैं भी हूँ हैरान कहीं और चलें॥

                  डॉ. सूर्या बाली “सूरज”

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Comment

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Comment by Yogi Saraswat on June 4, 2012 at 2:55pm

आईना अंधों की बस्ती में बेंचने निकला, 

चल सकी न मेरी दूकान कहीं और चलें॥

 

दोस्त दुश्मन सभी चेहरे पे लगाए चेहरे,

कर सका मैं नहीं पहचान कहीं और चलें

आदरणीय श्री डॉ. बाली , बेहद खूबसूरत ग़ज़ल ! हर बार की तरह बेमिसाल

Comment by UMASHANKER MISHRA on June 4, 2012 at 1:36pm

बेहतरीन गजल

वाह.... वाह..... के लायक

Comment by Ashok Kumar Raktale on June 1, 2012 at 9:13pm

आदरणीय बाली जी
             सादर नमस्कार, बहुत सुन्दर गजल सभी शेर वाह वाही के काबिल. बधाई.
कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई यहाँ, 
है नहीं कोई भी इंसान कहीं और चलें॥


वाह! वाह!

Comment by आशीष यादव on May 26, 2012 at 10:23am

वाह सर, कथ्य-तथ्य सभी शानदार। हर शेर वाहवाही का हकदार।
बधाई स्वीकारें

Comment by Bhawesh Rajpal on May 25, 2012 at 9:12pm
बहुत सुन्दर  ! हार्दिक बधाई , डॉ  बाली जी  ! 
Comment by AVINASH S BAGDE on May 25, 2012 at 9:09pm

शहर ये हो गया शमशान कहीं और चलें॥

बस्तियाँ हो गईं वीरान कहीं और चलें॥....सब छोड़ कहाँ जाओगे?


कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई यहाँ,  

है नहीं कोई भी इंसान कहीं और चलें॥.....हकीकत कैसे झुठलाओगे!


जागने और जगाने की बात किससे करें,

यहाँ तो सोया है भगवान कहीं और चलें॥....भगवान नहीं पाषाण है..


कोई जोरू से कोई ज़र से ज़मीं से कोई,

हैं सभी लोग परेशान कहीं और चलें॥....फिर भी फंसाए जान है..


आईना अंधों की बस्ती में बेंचने निकला, 

चल सकी न मेरी दूकान कहीं और चलें॥....हर शै बाज़ार है..


दोस्त दुश्मन सभी चेहरे पे लगाए चेहरे,

कर सका मैं नहीं पहचान कहीं और चलें॥.....बस पीठ पे वार है.


वक़्त के साथ बदलते हुए चेहरे “सूरज”

देख के मैं भी हूँ हैरान कहीं और चलें॥....किरने सूरज की दमदार है..

वाह!डॉ. बाली वाह!

Comment by वीनस केसरी on May 25, 2012 at 4:52pm
डॉ. सूर्या बाली "सूरज" जी

रदीफ काफिया के सुंदर संयोजन को आपने सुंदरता से निभाया है

ग़ज़ल के लिए ढेरो बधाई स्वीकारें

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 25, 2012 at 1:26pm

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल सुन्दर भाव 

Comment by Yogi Saraswat on May 25, 2012 at 11:57am

आईना अंधों की बस्ती में बेंचने निकला, 

चल सकी न मेरी दूकान कहीं और चलें॥

ये कहना गलत होगा की बहुत ही अच्छी ग़ज़ल क्योंकि आप हमेशा ही अच्छा ग़ज़ल कहते हैं ! आदरणीय श्री डॉ. सूरज जी आपकी लेखनी को सलाम करता हूँ ! बहुत ही बढ़िया , सरल शब्द और स्पष्ट सन्देश ! वाह

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 24, 2012 at 6:35pm

आईना अंधों की बस्ती में बेंचने निकला, 

चल सकी न मेरी दूकान कहीं और चलें॥

bahut sahi kaha, sir jii. badhai

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