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जब से चमचा चलन में आया है |
 कुछ नयापन, वतन में आया है ||
बे-हयाई व बेईमानी को, होश्यारी में जब मिलाया है |
तब कहीं जा के आज का इन्सां, खुद को चमचा कहाने पाया है ||
खूब नुस्खा, यह हाथ आया है, हमने चमचों से दिल लगाया है |
रंग लाई है, उल्फत-ए-चमचा ,हम पे अब,बरकतों का साया है ||
जिसकी ख़्वाबों में न तवक्को थी, होश में, हाथ सब वो आया है |
मात दी है, चिराग के जिन को,दाँव,चमचे ने वो लगाया है ||
आँख वालों को, अक्ल का अँधा, आज चमचों ने ही बनाया है |
मूर्खों की इजाद है चमचा, आज-कल जिसपे, हुस्न आया है||
जब से मशहूर हो गया चमचा, हर कोई उसका चाचा. ताया है |
देख कर रह गया 'शशि' हैराँ,चमचा क्या खूब, चमचमाया  है || 

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Comment by Saurabh Pandey on October 15, 2011 at 11:18pm

शशि भाई, बहुत बढिया. इस हास्य रचना के लिये हार्दिक बधाई. रचना सीधी सादी भाषा में बात रखती है लेकिन इसकी तासीर बहुत ही गहरी है.

मात दी है, चिराग के जिन को,दाँव,चमचे ने वो लगाया है ||
आँख वालों को, अक्ल का अँधा, आज चमचों ने ही बनाया है |

इन पंक्तियों पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें.

 

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