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शरारत के दिन गये - गजल (लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२
*
पढ़ लिख गये हैं और जहालत के दिन गये
लेकिन इसी के साथ रिवायत के दिन गये।१।
*
जितने  भी  संगदिल  थे  तराशे  गये  बहुत
लेकिन न इतने भर से कयामत के दिन गये।२।
*
हर छोटी बात अब तो है तकरार का विषय
इस से समझ लो आप मुहब्बत के दिन गये।३।
*
साया गया जो बाप का क्या कुछ छिना न पूछ
उस की समझ  खुली  है  शरारत के दिन गये।४।
*
बाँटा  गया  अनाज  यूँ  दो- चार - दस  किलो
उस पर कहन कि आज से गुरबत के दिन गये।५।
*
सँस्कार देना भूल  के लिबरल हुए सभी
ऐसे स्वयं के हाथ से अस्मत के दिन गये।६।
*

कर्मों के खेल आप को फलते हैं खूब पर
ये भी समझना भूल है किस्मत के दिन गये।७।

*

मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment

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Comment by Chetan Prakash on July 3, 2023 at 11:18am

आ. भाई मुसाफिर साहब, नमस्कार, अच्छी ग़ज़ल हुई पर, बंधु शब्द संस्कार ( 2121 ) न कि सँस्कार ( 221 ) आपने कदाचित बह्र पर
लाने के लिए उसे बाँधा है जो अस्वाभाविक लग रहा है। निश्चय ही आप इसे तहज़ीब से बदल सकते थे जो सर्वथा उचित होता ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 1, 2023 at 1:28pm

आदरणीय लक्ष्मण जी,

ग़ज़ल के लिए बधाई ..
सादर 

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