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ग़ज़ल नूर की - बनें जब तक बना कर हम रखेंगे इस ज़माने से

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बनें जब तक बना कर हम रखेंगे इस ज़माने से
फिर इक दिन लौट जाएँगे चले थे जिस ठिकाने से.  
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अँधेरे की हुकूमत यूँ तो चारों सिम्त फैली है
मगर वो काँप जाता है दीये के टिमटिमाने से.
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तो फिर दरिया तो क्या मैं इक समुन्दर भी बहा देता
अगर बिछड़ा कोई मिलता हो अश्कों के बहाने से.
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कई बरसों से मैं बस उन की ही महफ़िल में जाता हूँ
जिन्हें कुछ फ़र्क़ पड़ता हो मेरे आने न आने से.
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बड़प्पन ये कि औरों से लकीर अपनी बड़ी रक्खें
नहीं बढ़ता किसी का क़द किसी का क़द घटाने से.
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निलेश "नूर"

मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 233

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 15, 2023 at 6:37pm

धन्यवाद आ. लक्ष्ण जी 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 14, 2023 at 10:58pm

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई। 

पहले मिसरे में बनें की जगह बने होना चाहिए मेरे हिसाब से। टंकण त्रुटि है देखिएगा। सादर...

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