२२१/२१२१/१२२१/२१२
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बातों में सिर्फ देश का उद्धार हो रहा
बाँकी स्वयं के वास्ते व्यापार हो रहा।१।
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चमकेगी उनकी और सियासत पता उन्हें
बेवश युवा यहाँ का जो मिस्मार हो रहा।२।
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कीमत बढ़े ही जा रही हर एक चीज की
निर्धन का जीना रोज ही दुश्वार हो रहा।३।
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कुर्सी पे जब से बैठे हैं ईमानदार ढब
नेता वतन का और भी मक्कार हो रहा।४।
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आँधी चली है देश में कैसी विकास की
लाचार अब तो और भी लाचार हो रहा।५।
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वैसे तो हल है हाथ में साथी किसान के
पर साथ राजनीति का हथियार हो रहा।६।
*(१९-२-२१)
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन।गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, बढ़िया ग़ज़ल. बधाई. सादर
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