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गजल -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२२१/२१२१/१२२१/२१२
*
बातों में सिर्फ देश का उद्धार हो रहा
बाँकी स्वयं के वास्ते व्यापार हो रहा।१।
*
चमकेगी उनकी और सियासत पता उन्हें
बेवश युवा यहाँ  का  जो मिस्मार हो रहा।२।
*
कीमत बढ़े ही जा रही हर एक चीज की
निर्धन का जीना  रोज  ही दुश्वार हो रहा।३।
*
कुर्सी पे जब  से  बैठे  हैं  ईमानदार ढब
नेता वतन का और भी मक्कार हो रहा।४।
*
आँधी चली है देश में कैसी विकास की
लाचार अब तो और भी लाचार हो रहा।५।
*
वैसे तो हल है हाथ में साथी किसान के
पर साथ राजनीति का हथियार हो रहा।६।
*(१९-२-२१)

मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 18, 2023 at 10:50pm

आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन।गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 16, 2023 at 12:42am

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, बढ़िया ग़ज़ल. बधाई. सादर 

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