2122 1212 22
जितना बढ़ते गए गगन की ओर
उतना उन्मुख हुए पतन की ओर
साज-श्रृंगार व्यर्थ है तेरा
दृष्टि मेरी है तेरे मन की ओर
फल परिश्रम का तब मधुर होगा
देखना छोड़िए थकन की ओर
मन को वैराग्य चाहिए, लेकिन
तन खिंचा जाता है भुवन की ओर
"जय" भी एकांतवास-प्रेमी है
इसलिए आ गया सुख़न की ओर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
जी अवश्य ! पटल पर आपका पुन: स्वागत है I
आदरणीय सतविन्द्र जी, उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय समर कबीर जी आदाब, बहुत दिनों बाद मेरा इस मंच पर लौटना हुआ है। आशा करता हूं, पहले की तरह आपका आशीर्वाद और मार्गदर्शन प्राप्त होता रहेगा। आपका हार्दिक आभार। सादर।
आदरणीय बृजेश जी, बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
आदरणीय जयनित भाई, बहुत बढ़िया ग़ज़ल।
जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
अच्छी ग़ज़ल कही भाई... बधाई
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