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ग़ज़ल-तुम्हारे प्यार के क़ाबिल

1222 1222 1222 1222

जरा सा मसअला है ये नहीं  तकरार के  क़ाबिल
किनारा हो नहीं सकता कभी मझधार के क़ाबिल

न ये संसार  है मेरे  किसी भी  काम का  हमदम
नहीं हूँ मैं किसी  भी तौर से  संसार के  क़ाबिल

न मेरी  पीर है  ऐसी  जिसे  दिल  में रखे  कोई
न मेरी  भावनायें हैं  किसी  आभार के  क़ाबिल

ये मुमकिन है ज़माने में हंसी तुझसे ज़ियादा हों
सिवा तेरे  नहीं कोई  मेरे  अश'आर के  क़ाबिल

मेरे आँसू तुम्हारी आँखों से बहते तो अच्छा था
मगर ये अश्क़ भी तो हों तेरे रुख़सार के क़ाबिल

न जाने क्यों  बहारें इस  कदर से  रूठ कर  बैठीं
नहीं तो ज़ीस्त थी 'ब्रज' की गुले गुलज़ार के क़ाबिल

(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Views: 955

Comment

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 5, 2021 at 9:33pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदणीय अमीरुद्दीन जी...सादर

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 4, 2021 at 3:54pm

जनाब बृजेश कुमार ब्रज जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ। मुद्दआ पर निलेश जी से सहमत हूँ।

//मेरी पिछली ग़ज़ल में मैंने एक शब्द लिया था मियाद ..जो बहुत ही आम फ़हम व प्रचलित शब्द है लेकिन समर सर ने बताया कि उसे मीआद पढ़ा जाता है..

इस पर उन से व्हाट्स एप्प पर काफी बहस के बाद मैंने उस मिसरे को बदल दिया और मुझे लगता है कि मिसरा पहले से बेहतर हो गया.//

निलेश जी अभी तक आपने ओ बी ओ पर पोस्ट उस ग़ज़ल में मिसरा बदला नहीं है, अभी भी 'मियाद' ही है। देखियेेगा। 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 1, 2021 at 11:57am

वाह...आपका सुझाव बहुत ही खूबसूरत है आदरणीय नीलेश जी

किनारा हो नहीं सकता कभी मझधार के क़ाबिल 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 1, 2021 at 11:43am

आ. बृजेश जी  
जरा सा मसअला है ये नही तकरार के क़ाबिल... तकरार के क़ाबिल नहीं है तो अच्छा ही हुआ न ..क्यूँ कि तक्रार तो मतान्तर से उपजती है 
.
चलो माना नहीं हूँ मैं तुम्हारे प्यार के क़ाबि
किनारा हो नहीं सकता कभी मझधार के क़ाबिल 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 1, 2021 at 11:39am

जी बिल्कुल...आप लोगों की तीखी बहस में भी काफी कुछ सीखने को ही मिलता है।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 1, 2021 at 11:37am

आ. बृजेश जी, 
आप तो आप .. मैं भी अक्सर समर सर के सानिध्य में सीखता हूँ.. कई बार तीखी बहस भी हो जाती है लेकिन यदि उनका पॉइंट वैलिड है तो माँ लेता हूँ..
मेरी पिछली ग़ज़ल में मैंने एक शब्द लिया था मियाद ..जो बहुत ही आम फ़हम व प्रचलित शब्द है लेकिन समर सर ने बताया कि उसे मीआद पढ़ा जाता है..
इस पर उन से व्हाट्स एप्प पर काफी बहस के बाद मैंने उस मिसरे को बदल दिया और मुझे लगता है कि मिसरा पहले से बेहतर हो गया.
इस मंच का और सुधि जनों की तेज़ नज़रों का लाभ जितना लूटा जा सके लूटा जाना चाहिए.
 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 1, 2021 at 11:34am

ऐसे कहता हूँ

जरा सा मसअला है ये नही तकरार के क़ाबिल

चलो माना नहीं हूँ मैं तुम्हारे प्यार के क़ाबिल

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 1, 2021 at 11:31am

उचित है आदरणीय नीलेश जी...ये सच है कि साहित्य में मेरी जानकारी बहुत ही अल्प है...बस कुछ कहना चाहता हूँ सो भावों को शब्दों का रूप देने की कोशिश करता हूँ...इसलिए थोड़ी बहुत जानकारी ओ बी ओ जैसे प्लेटफॉर्म से आप लोगों के सानिध्य में प्राप्त हुई है।और उर्दू शब्दों का ज्ञान तो और भी कम है।जो बोलते हैं उसे ही सही मान लेते हैं।सुधार करने के कोशिश करता हुँ... सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 1, 2021 at 8:38am

आप मुद्द आ का उर्दू रूप देखें ..

مدعا  मीम , दाल , ऐन मिलकर मुद्द और बाद का अलिफ़ आ बना रहे हैं 

दिल मुद्दई'  दीदा  बना मुद्दा-अलैह २२१ २ १२ १ १ २    २ १ २ १२ बोल्ड २१२ मुद्द आ है 

नज़्ज़ारे का मुक़द्दमा फिर रू-ब-कार है

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 1, 2021 at 8:27am

आ. बृजेश जी,

मुद्दआ को आम बोलचाल में मुद्दा ही पढ़ा जाने लगा है लेकिन साहित्य में लिखते समय शुद्ध रूप मुद्दआ लिखना ही श्रेयस्कर होगा.
आप ने फ़ानी साहब का जो शे'र पेश किया है उस की तक्तीअ करें तो पाएँगे कि वहां भी मुद्द आ ए हयात पढ़ा गया है ..
यही हाल शमअ का शमा होने से हुआ है .
ग़ालिब के शे'र को भी पढेंगे तो पाएँगे कि बहर में पढ़ते समय मुद्दआ ही पढ़ा जाता है ..
अत: आश्वस्त रहें कि सहीह शब्द मुद्द आ  ही है और उर्दू में ऐसे ही बरता जाता है .
सादर  

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