वो जहां पर असमा और धरा मिल जाते है
छोर मिलते ही नहीं पर साथ में खो जाते है
है यही वो स्थान जिसका अंत ही नहीं
मिल गया या खो गया है सोचते है सब यही
सबको है चाह इसकी पर राह का पता नहीं
बिम्ब या प्रतिबिम्ब है ये भ्रम सभी को है यही
कामना को पूर्ण करने श्रम छलांगे भरता है
मरीचिका के जाल में जैसे मृग कोई भटकता है
है धरा का अंत वही जिस बिंदु से शुरुआत है
यात्रा अनंत इसकी कई युगों की बात है
ओर ना है छोर इसका शुन्य सा आकाश है
जिसका जग को ज्ञान न हो परम इसका व्यास है
सूर्य उगता है कहीं से अस्त होता है कहीं
चाँद अपना रास्ता तनिक भटकता भी नहीं
लाखो तारे नभ में हरदिन टिमटिमाते रहते है
देख कर अपनी धरा को मुसकुराते रहते है
मिलने को आतुर है लेकिन मिल कभी ना पाएंगे
साथ चलना भाग्य इनका साथ चलते जाएंगे
ये प्रथा प्राचीन है जो मिट कभी ना पायेगी
धरती और नभ का मिलन है जो क्षितिज कहलाएगी
"मौलिक व अप्रकाशित"
अमन सिन्हा
Comment
@मुसाफिर साहब
@समर कबीर साहब
आप दोनों का तहे दिल से शुक्रिया
आ. भाई अमन जी, अभिवादन । अच्छी प्रस्तुति हुई है। हार्दिक बधाई स्वीकारें।
जनाब अमन सिन्हा जी आदाब, सुंदर प्रस्तुती हेतु बधाई स्वीकार करें I
कुछ टंकण त्रुटियाँ देख लें I
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