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ग़ज़ल: लाओ जंजीर मुझे पहना दो

2122 1122 22

लाओ जंजीर मुझे पहना दो 

मेरी तकदीर मुझे पहना दो

तुम ख़ुदा हो तो ये डर कैसा है

मेरी तहरीर मुझे पहना दो

जो भी चाहो वो सज़ा दो मुझको

जुर्म ए तामीर मुझे पहना दो

पहले काटो ये ज़ुबाँ मेरी फिर

कोई तज़्वीर मुझे पहना दो

मुफ़्लिसी ज़ुर्म अगर है मेरा

सारी ताजी़र मुझे पहना दो

आज आया हूँ मैं हक की खातिर

कोई तस्वीर मुझे पहना दो

मौलिक व अप्रकाशित

आज़ी तमाम

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Comment

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Comment by Aazi Tamaam on June 9, 2021 at 2:42pm

सादर प्रणाम आ नीलेश जी

हौसला अफ़ज़ाई के लिये सहृदय शुक्रिया

सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 9, 2021 at 10:23am

आ. आज़ी जी,

ग़ज़ल के लिए बढाई.. विद्वतजन सब कह ही चुके हैं 
सादर 

Comment by Aazi Tamaam on June 8, 2021 at 10:09am

गुरु जी ये बदलाव किये हैं

पहले काटो ये ज़ुबाँ मेरी फिर

कोई तज़्वीर मुझे पहना दो 

आज आया हूँ मैं हक की खातिर

आज तक़्सीर मुझे पहना दो

Comment by Aazi Tamaam on June 6, 2021 at 10:07pm

सादर प्रणाम आ गुरु जी

हौसला अफ़ज़ाई व मार्गदर्शन के लिये सहृदय शुक्रिया

दुरुस्त करने की कोशिश करूँगा गुरु जी

सादर

Comment by Samar kabeer on June 6, 2021 at 3:40pm

जनाब आज़ी तमाम जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

गुणीजनों से सहमत हूँ ।

'जो भी चाहो दो सज़ा मुझको तुम'

इस मिसरे पर जनाब भाई धामी जी का सुझाव अच्छा है ।

'झूठ ए तदबीर मुझे पहना दो'

इस मिसरे पर धामी जी से सहमत हूँ,इज़ाफ़त का इस्तेमाल भी उचित नहीं ।

'मैं हूँ मुफ्लिस तो हाँ मुजरिम हूँ मैं'

इस मिसरे को यूँ कह सकते हैं:-

'मुफ़लिसी जुर्म अगर है मेरा'

'कोई तस्वीर मुझे पहना दो'

इस मिसरे पर जनाब रवि शुक्ल जी से सहमत हूँ ।

Comment by Aazi Tamaam on June 5, 2021 at 10:33pm

सादर प्रणाम आ रवि शुक्ला जी

मैं कोशिश करूँगा की रदीफ़ के साथ न्याय कर सकूँ

हौसला अफ़ज़ाई के लिये सहृदय शुक्रिया

सादर

Comment by Ravi Shukla on June 5, 2021 at 9:27pm

आदरणीय आजी साहब  गजल की उम्दा कोशिश हुई है मुबारक बाद पेश करता हूँ छाेटी बहर मे काम मुशिकल होता है । तस्वीर काे पहनाना शायद काफिया के साद रदीफ का निर्वहन न हो  पाया है समर साहब की  टिप्पणी से मुझे भी कुछ सीखने को मिलेगा। बहर हाल मुबारक बाद कुबूल करें 

Comment by Aazi Tamaam on June 3, 2021 at 2:33pm

सादर प्रणाम आ धामी सर

हौसला अफ़ज़ाई के लिये सहृदय शुक्रिया

हाँ मुझे भी गुरु जी की राय का इंतज़ार है

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 3, 2021 at 12:43pm

आ. भाई आजी तमाम जी, गजल का प्रयास अच्छा है । हार्दिक बधाई । 

तुम ख़ुदा हो तो ये डर कैसा(क्योंकर) है

//जो भी चाहो वो सज़ा दो मुझको 

//झूठ ए तदबीर // वाक्यांश मेरे हिसाब से ठीक नहीं है। शेष आ. समर जी ही स्पष्ट करेंगे।

//हो के मुफ्लिस हुआ मुजरिम मैं गर

देखिएगा। सादर...

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