२२१/२१२१/१२२१/२१२
किस्मत कहें न कैसे सँवारी गयी बहुत
हर दिन नजर हमारी उतारी गयी बहुत।१।
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जो पेड़ शूल वाले थे मट्ठे से सींचकर
पत्थर को चोट फूल से मारी गयी बहुत।२।
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भूले से अपनी ओर न आँखें उठाए वो
जो शय बहुत बुरी थी दुलारी गयी बहुत।३।
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धनवान मौका मार के ऊँचा चढ़ा मगर
निर्धन के हाथ आ के भी बारी गयी बहुत।४।
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बेटी का ब्याह शान से करने को बिक गये
ऐसे भी बाजी मान की हारी गयी बहुत।५।
*
जिसको चुकाते थक गये लोगो के पाँव भी
सुख की हमारे गाँव उधारी गयी बहुत।६।
(६-४-२१)
मौलिक अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
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