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ग़ज़ल: "सनम हमको मिला"

2211  2122  1221  1222  12

चाहत में सिवा ही चाहत के क्या क्या न सनम हमको मिला

हर जख्म मिला है दिल को यूँ मरहम न सनम हमको मिला

किस को है पता यहाँ कौन कब हो जाये यूँ ही बे-वफ़ा

हम जान लुटा आये अपनी फिर भी न सनम हमको मिला

ता उम्र लगा रहा इश्क में भी यूँ तो मिलना बिछड़ना

मिलके न जुदा हो पर कोई ऐसा न सनम हमको मिला

थोड़ा तो क़रार आये या रब इस दिल ए बेजार को

थोड़ा भी सुकूँ गो चाहत में आखिर न सनम हमको मिला

कैसे ये कहें हमें मिलके भी तो सनम कुछ ना मिला

टुकड़ों में मिला है सब कुछ प पैहम न सनम हमको मिला...

(मौलिक व अप्रकाशित)

आज़ी तमाम.

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Comment

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Comment by Aazi Tamaam on March 7, 2021 at 10:20pm

प्रणाम गुरु जी

आज आपने समझाया बहुत अच्छा लगा

सहृदय धन्यवाद

जाने अंजाने हुए मेरे द्वारा अनुचित व्यवहार के लिये मैं बेहद क्षमा प्रार्थी हूँ

जी गुरु जी ये बह्र प्रचलित नहीं है

Comment by Samar kabeer on March 7, 2021 at 3:07pm

जनाब आज़ी तमाम जी आदाब, ये बह्र जिस पर आपने ग़ज़ल कही है,प्रचलित बह्र नहीं है ।

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