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ये तितलियाँ ये फूल भी सकते में आ गए..( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

221 2121 1221 212

ये तितलियाँ ये फूल भी सकते में आ गये
जब पेड़ चल के ख़ुद ही बगीचेे मेंं आ गए

कल तक मिरे अज़ीज़ अंँधेरों में क़ैद थे
आंँखें रगड़ - रगड़ के उजाले में आ गये

नीलाम हो रही है ख़ुशी सुन रहे थे कल
हम भी थे बेवक़ूफ़ जो झांँसे में आ गये

मारा गया गली में उसे सब के सामने
दर पर खड़े थे लोग दरीचे में आ गये

कह कर गए थे है ये मुलाक़ात आख़िरी

जैसे ही आँख झपकी वो सपने में आ गए

ग़ैरों में उनको ढूँढ रहा था मगर जनाब
दुश्मन तो आजकल मिरे ख़ेमे मेंं आ गये

वादा किया था धूप में चलने का रात में
कल सुबह साथ छोड़ के साये में आ गये

'सालिक' जहाँ से बचके निकलने की चाह थी

अब क्या करूँ मकाँ वही रस्ते में आ गए

*मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by सालिक गणवीर on September 2, 2020 at 9:26pm

उस्ताद-ए-मुहतरम समर कबीर साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और हौसला अफजाई के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.आपकी क़ीमती इस्लाह   केे लिए मश्कूर-ओ-ममनून हूँँ गुरूवर.

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 2, 2020 at 7:25pm

जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, उस्ताद मुहतरम की इस्लाह से शानदार ग़ज़ल की तख़्लीक़ हुई है शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। 

"कह कर गए थे है ये मुलाक़ात आख़िरी

जैसे ही आँख झपकी वो सपने में आ गए"     लाजवाब। 

Comment by Dimple Sharma on September 2, 2020 at 3:50pm

आदरणीय सालिक गणवीर जी नमस्ते, खुबसूरत ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय, पांचवां शेर बहुत कमाल हुआ है वाह बहुत ख़ूब आदरणीय।

Comment by Samar kabeer on September 2, 2020 at 12:18pm

जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।

 गये

'ये ख़्वाब है कोई या महज इत्तफ़ाक़ है
जब एड़ियाँ फटींं तो ग़लीचे में आ गये'

इस शैर के ऊला में सहीह शब्द है ''मह्ज़" 21 और सानी में सहीह शब्द है  "ग़ालीचा" बहुवचन "ग़ालीचे",देखियेगा ।

'लेकिन ग़रीब लोग निशाने में आ गये'

इस मिसरे में सहीह वाक्य होगा "निशाने पे आ गए" देखियेगा ।

'जैसे लगी थी आँख वो सपने में आ गए'

इस मिसरे को यूँ कर लें:-

'जैसे ही आँख झपकी वो सपने में आ गए'

'उस पार दोस्तों के क़बीले बचे रहे 
दुश्मन तो आजकल मिरे ख़ेमे मेंं आ गये'

इस शैर का ऊला यूँ कर लें:-

'ग़ैरों में उनको ढूँढ़ रहा था मगर जनाब'

'बांँये जो चल रहे थे वो दांँये में आ गये'

इस मिसरे में क़ाफ़िया दोष है ।

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