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हर सम्त अँधेरा है इसे दूर भगाओ...(ग़ज़ल-सालिक गणवीर)

221 1221 1221 122

हर सम्त अंँधेरा है इसे दूर भगाओ
है कोई मुनव्वर तो मिरे सामने आओ

क़ातिल हो तो क़ातिल की तरह पेश भी आओ
घायल हूँ मिरे ज़ख़्म पे मरहम न लगाओ

कोई न उठाएगा यहाँ बोझ तुम्हारा
शानों को ज़रा और भी मजबूत बनाओ

कश्ती को सँभालो न रहो चूर नशे में
गर डूबना है डूबो हमें तो न डुबाओ

काँटों की तो तासीर है वो चुभते रहेंगे
तुम फूल हो ख़ुशबू की तरह फैलते जाओ

ऐसे भी वो करता है सर-ए-आम फ़ज़ीहत
पर काट के कहता है मुझे उड़ के दिखाओ

मुमकिन तो न था फिर भी तुम्हें दे दी मुआफ़ी
अब छूट है तुमको नया इल्ज़ाम लगाओ

'सालिक' तो चला जाएगा दुनिया से किसी दिन
आएगा नहीं लौट के कितना भी बुलाओ

*मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by सालिक गणवीर on August 22, 2020 at 5:32am

आदरणीय अमीरूद्दीन 'अमीर'साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और हौसला अफजाई के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on August 21, 2020 at 11:42pm

आदरणीय जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।

Comment by सालिक गणवीर on August 21, 2020 at 5:12pm

उस्ताद-ए-मुहतरम समीर कबीर साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और हौसला अफजाई के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.आपकी इस्लाह के बिना  ग़ज़ल का मुकम्मल होना मुमकिन नहीं था, मुहतरम.

Comment by Samar kabeer on August 21, 2020 at 4:11pm

जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।

'चारो - सू अंँधेरा है इसे दूर भगाओ

मतले के ऊला में 'चारों सू' ग़लत है,सहीह शब्द है "चार सू"ऊला यूँ कर सकते हैं:-

'हर सम्त अँधेरा है इसे दूर भगाओ'

'घाइल हूँ मिरे ज़ख़्म पे मरहम न लगाओ'

इस मिसरे में 'घाइल' को "घायल" कर लें ।

'मुमकिन तो नहीं था तुम्हें पर माफ़ किया है'

इस मिसरे में सहीह शब्द "मुआफ़" है, देखियेगा ।

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