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ग़ज़ल (यहाँ तनहाइयों में क्या रखा है....)

1222 1222 122

यहाँ तनहाइयों में क्या रखा है
चलो भी गाँव में मेला लगा है

तुझे मैं आज पढ़ना चाहता हूँ
मिरी तक़दीर में अब क्या लिखा है

किनारे पर भी आकर डूब जाओ
नदी है,नाख़ुदा तो बह चुका है

निकलना चाहता है मुझसे आगे
मिरा साया मिरे पीछे पड़ा है

ज़रा आगे चलूँ या लौट जाऊँ
गली के मोड़ पर फिर मैक़दा है

उसी पर मर रहे हैं लोग सारे
जो अपने आप पर कब से फ़िदा है

सितारों चैन से सोने मुझे दो
फ़लक पर आज भी क्या रतजगा है?

उसे ही ढूँढती हैं मंज़िलें भी

मुसाफ़िर जो कहीं भटका हुआ है

(मौलिक एवं अप्रकाशित.)

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Comment by सालिक गणवीर on July 27, 2020 at 3:18pm

आदरणीय अमीरूद्दीन 'अमीर'साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर आपकी मौजूदगी और हौसला अफजाई के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 27, 2020 at 2:34pm

जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, उम्दा ग़ज़ल हुई है, शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 27, 2020 at 11:49am

आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन असआरों से सजी गजल के लिए ढेरों बधाइयाँ।

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