तरह तरह के दिवस मनाए जाते। कोई दिन पर्यावरण का होता,तो कोई बाल दिवस आदि आदि।शोर होते,जश्न भी। और दिवस चाहे जैसे भी लगे हों,पर बाल दिवस की चर्चा सुन कुछ शब्द कसमसाए।मुखर होने लगे।ध्वनि फूटी -
' हम कहने के माध्यम हैं।'
' हम तुम्हारे माध्यम हैं।' दूसरी आवाजें आने लगीं।
शब्द जैसे चरमराने लगे। टूटन का अहसास हुआ।वे कराह ते हुए बोले -
' तुम लोग कौन हो?'
' खूब,बहुत खूब!अपने निर्माताओं को ही बिसरा बैठे तुमलोग।' ताना भरी आवाजें गूंजने लगीं।
' निर्माता?हमारे ?' शब्द चौंके।
' चकित मत हो तुमलोग।आज जिससे बने हैं,उसे भुला देने का चलन जोरों पर है।तुम कुछ अलग नहीं हो।' अदृश्य आवाजें प्रबल होने लगीं।
शब्द अपने गाल सहलाने लगे, मानो तमाचे पड़े हों। उन्होंने एक दूसरे को देखा,फिर मद्धिम स्वर में बोले,' बता भइए!तुम सब कौन हो?क्या चाहते हो?'
' पहचान,और क्या?' रहस्य और गहरा गया।
' कैसी पहचान?हम भ्रमित हैं।आप सब अपने परिचय दें।' शब्दों ने हथियार डाल दिए।
' अक्षर हैं हम, जिनसे आप सब नुमायां हैं।' उत्तर मिला।
' एं एं...?' शब्द चीखे।शर्मिंदा भी हुए।
' न चौंको,न लजाओ।थी आज की हकीकत है कि लोग अपनी जमीन ही भुला देते हैं।' और दोह रे झन्नाटेदार झापड़ रसीद हुए।
' अब बस भी करो मेरे खुदाओ!अक्षर से शब्द तक तो पहुंच गए न?' एक जानना स्वर उभरा।
' आप कौन?' समवेत स्वर लहराया।
' लघुकथा हूं मैं,लघुकथा।तुम सबकी अभिव्यंज ना का स्वरूप हूं मैं।' आवाज निकट आ चुकी थी।
' नमन आदरणीया,नमन।
' प्रणम्य तो तुम सब हो भई!तुमने मुझे रूप और वाणी दी है।' लघुकथा बोली।
' महत्ता आपकी है देवि!हम आपमें स्थापित हैं।' शब्द - आखर
एक साथ बोल पड़े।
' हम परस्पर पिरोए हुए हैं।हमारा संबंध अन्योन्यश्रय है।' लघकथा ने अन्विति जाहिर की।
' जय हो।लघुकथा की जय हो।' उद्घोष होने लगा।
' व्यर्थ का तुमुल रोर है यह। बंद करो।' लघुकथा ने खिन्नता जाहिर की।
' क्यों देवि? क्या हुआ?'
' देखा नहीं तुमने?लोग मेरे नाम से अब अलग अलग दिवस मनाने पर तुले हैं। हम यहां सामंजस्य स्थापित करने चले हैं।वे वहां विभाजन - विखंडन करने पर आमादा हैं।'
' बेशक उनका कृत्य निंद्य है। हम उनकी परिधि से परे रहेंगे। वे मना लें अपने मन के दिवस।' शब्द वृंद सुदृद्ध आवाज में गरजने लगा।
' अच्छा हो मेरा कोई दिवस न हो।हो, तो बस एकात्मता का सुर।' इतना कह लघुकथा अन्तर्ध्यान हो गई।
" मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आपका आभार आदरणीय समर जी।नमन।
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब, अच्छी लघुकथा हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
कृपया कुछ शुद्धियों पर गौर करें,जो टंकण जनित अशुद्धियां हो गई हैं।
... यही आज की हकीकत है। और ....... जनाना स्वर उभरा।
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