(221 2121 1221 212 )
बैठे निग़ाहें किस लिए नीची किये हुए
क्या बात है बताइए क्यों लब सिले हुए
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काकुल के पेच-ओ-ख़म के हैं अंदाज़ भी जुदा
सर से दुपट्टा जैसे बग़ावत किये हुए
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मिज़गाँ के साहिलों पे टिकी आबजू-ए-अश्क
काजल बिखेरने की जूँ हसरत लिये हुए
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क्यों हो गए हैं आपके रुख़्सार आतशीं
जैसे कनेर लाल ख़िज़ाँ में खिले हुए
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शेरू को ख़ौफ़ इतना है बैठा दबा के दुम
मैना के सुर भी आज न लगते मिले हुए
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देखा नहीं है आपको इस हाल में कभी
हम भी हुज़ूर सच कहें तो हैं डरे हुए
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कहता है दास्तान ये बिखरा हुआ मकाँ
हालात इस से पहले न इतने बुरे हुए
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आसार हैं कि आएगा इस घर में ज़लज़ला
होश-ओ-हवास अपने भी कुछ कुछ उड़े हुए
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अपनी तो कुछ ख़ता नहीं है बोलिये 'तुरंत'
ख़ामोश रह के दूर भला कब गिले हुए
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आपकी आनंदित करने वाली सराहना से मन तृप्त हुआ | सृजन सार्थक हुआ |सादर आभार एवम नमन आदरणीय Samar kabeer साहेब |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी , आपकी हौसला आफजाई के लिए दिली शुक्रिया | इन मंच पर अधिकांश लोग इन उर्दू शब्दों से परिचित हैं ,इसलिए अर्थ नहीं दिए | आपको किन शब्दों का अर्थ बताना है अंदाज़ा लगाना मुश्किल है | मैं अनुमान से अर्थ बता रहा हूँ ,काकुल=केश , मिज़गाँ=पलकें , आबजू-ए-अश्क=आंसुओं की नदी , आतशीं=आग युक्त , ज़लज़ला=भूकंप |
बढ़िया ग़ज़ल हार्दिक बधाई आपको । कुछ उर्दू के शब्द की जानकारी नहीं थी। आप बता दें पूरी बात समझ में आ जायेगी
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