हिन्दी की रीतिमुक्त धारा के शीर्षस्थ कवि थे i उनकी प्रेमिका थी सुजान. जो दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह 'रंगीले' के दरबार में तवायफ थी i इनके मार्मिक प्रेम की अनूठी दास्तान पर आधारित है-उपन्यास 'बिसासी सुजान ' i पेश है उसका एक अंश ----घनानन्द
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जून का महीना I शुक्ल पक्ष की नवमी I दिन का अंतिम प्रहर I सूर्यास्त का समय I यमुना नदी का काली घाट I घाट पर सन्नाटा I चंद्रमा की किरणें यमुना की लहरों से खेलती हुयी I हल्की आनंददायक हवा I आनंद अपनी नौका पर एकाकी I वह चप्पू तभी चलाता था जब नाव धार की सीध में तैरने से विचलित हो जाती I वह चश्मेतर था, शाजिया की याद में खोया था I दीवाना और बेसुध I
‘पागल रे ! वह मिलता है कब ? उसको तो देते ही हैं सब I यह विश्व लिए है ऋण उधार I ’
अँधेरा फैल चुका था I रात्रि का प्रथम प्रहर बीत चला I आनंद ने नाव घाट की ओर वापस घुमाई I घाट पर पहुँचकर उसने सावधानी से लंगर डाला I चाँदनी पूरी तरह बिखर चुकी थी I नाव से उतर कर वह सीढ़ियों की ओर बढ़ा ही था कि एक साया देखकर ठिठक गया I चाँद की रहस्यभरी रोशनाई में उसे यह समझने में देर न लगी कि वह कोई तरुणी है I
दिखने में वह एक साधारण लड़की थी I उसने कोई शृंगार नहीं कर रखा था I उम्र लगभग पच्चीस-छब्बीस साल I सुगठित देहयष्टि I लम्बा कद I सफ़ेद सलवार और उसी रंग के कुरते में वह बड़ी भली लग रही थी I उसके सिर पर एक नीले रंग की ओढ़नी भी थी, जिसका एक कोना उसने मुख से दबा रखा था, जिसकी वजह से उसका चेहरा साफ़ दिख नहीं रहा था I
‘आप कौन है? इस बेवक्त यहाँ इस घाट पर क्या कर रही हैं?’-आनंद ने चकित स्वर में पूछा I
‘घाट तो सबके लिए हैं और जनाब आप भी तो बेवक्त यहाँ हैं?’- लड़की ने सौम्य स्वर में कहा –‘मगर घबराइए मत मैं आपसे सबब नहीं पूछूंगी I ’
‘मम---- मैं ?- आनंद को इस उत्तर की उम्मीद नहीं थी वह हकला गया –‘ मैं तो अक्सर ही इसी समय यहाँ आता हूँ I निर्जन सन्नाटे में नौका का विहार करना मुझे अच्छा लगता है I मगर आप ---? आपको मैं पहली बार देख रहा हूँ I इस वक्त किसी जवान लड़की का घाट पर होना रहस्यमय है?’
‘रहस्य जैसी कोई बात नहीं, मैं तो आपसे ही मिलने आयी हूँ, क्योंकि मैं आपके इस शगल से परिचित हूँ? मैं जानती थी कि आप यहाँ जरूर मिलेंगे I’
‘यानि कि आप मुझे जानती हैं?’
‘शाह-ए-हिंद के मीर मुंशी को जानना क्या मुश्किल है?’
‘ओह, पर अगर मीर मुंशी से मिलना था---?’—आनंद को रोमांच हो आया- ‘तो आपको मेरे दफ्तर आना चाहिए था ?’
‘मैं यह नहीं कर सकती थी I मेरा कोई सियासी मकसद नहीं था I मेरा यहाँ मिलना ही मुनासिब था I ’
‘क्या आपके घर वालों ने आपको इतनी छूट दे रखी है?’
वह लड़की धीरे से हँसी I आनंद आश्चर्य में पड़ गया I उसे यह हँसी बड़ी मोहक लगी I
‘मैं यहाँ न आती, पर आपने ही मुझे कायल कर दिया I ’
‘’मैंने ---? मैं तो आपको जानता भी नहीं ?’—आनंद के आश्चर्य की सीमा नहीं थी I
‘कैसे जानते? आपने अपने दोस्त बाज खान की बात नहीं मानी I मेरा न्योता ठुकरा कर मेरा दिल तोड़ दिया I मेरे संदेश का जवाब तक नहीं दिया I एक फूल तक नहीं भेजा I मैं जान गयी आप नहीं आयेंगे I अब देख लीजिये मुझे ही आना पड़ा I’
‘मगर आप सुजान कैसे हो सकती है I आप तो बिलकुल साधारण है I कोई चमक-धमक नहीं और आप निपट अकेले इतना बड़ा खतरा उठाकर कैसे आ सकती है?’
‘इश्क बड़ी शातिर चीज है I आप अभी नहीं जानते I लोग अपना राज-पाट लुटा देते है I मैंने तो केवल यहाँ तक अकेले आने की जहमत की है और चमक-धमक तो दिखावे की चीज है I जहाँ प्यार हो वहाँ बनावट नहीं होती I ’
‘सुजान जी आप दिल्ली दरबार की सबसे काबिल तवायफ है I आपको ऐसा मजाक जेब नहीं देता I ’
‘यह मजाक नहीं है आनंद जी I सुजान मजाक करती भी नहीं I आप मेरी बात पर यकीन करिए I ’
‘तो फिर सच-सच बताइए, आप मुझसे चाहती क्या हैं ?’
‘आपका प्यार और क्या? शादी तो आप मुझसे करेंगे नहीं?’
‘मगर मैंने सुना है आप देह व्यापार नहीं करती?’
‘’यह तो आपने ठीक सुना, पर जहाँ इश्क हो वहाँ व्यापार कैसा? हम आपसे प्यार की कीमत कहाँ चाहते हैं I केवल प्यार चाहते है I प्यार के बदले प्यार I ’
‘मुझे नहीं पता था कि आप इतनी बेहया और निर्लज्ज हैं I मैं नहीं जानता कि आपका मकसद क्या है? यह मेरे खिलाफ एक साजिश भी हो सकती है I मगर कान खोल कर सुन लीजिये I मैंने अपने जीवन में एक ही लड़की से प्यार किया है और वह मेरे बचपन का प्यार है I यह अलग बात है कि वह मेरे नसीब में नहीं थी I पर मैं उसे ताजिंदगी भूल नहीं सकता I आपकी जैसी हजार सुजान मैं उस पर कुर्बान कर सकता हूँ I आप समझती हैं मैं यहाँ नदी की सैर करने आता हूँ I बिलकुल नहीं, मैं यहाँ एकांत में उसी का तसव्वुर करने आता हूँ I उसकी याद मुझे जीने की प्रेरणा देती है I ’
‘शुभानअल्लाह, मैं नहीं जानती थी कि आप किसी को इस कद्र मोहब्बत करते हैं I फिर तो वह बड़ी ही नसीबोंवाली है I ऐसा प्यार कहाँ किसी को मिलता है I हम तवायफों को तो बिलकुल नहीं I ’
‘तो फिर --- आप समझ गई न?’
‘क्यों नहीं समझूँगी? मैं एक नाचीज तवायफ ही सही I पर एक धड़कता दिल तो मेरे पास भी है I अब मेहरबानी करके एक बात और बता दीजिये कि यह छल्ला जो आपने दाहिने हाथ की अनामिका में पहन रखा है, क्या यह उसी का दिया हुआ है?’
‘हाँ -----I ’- आनंद के पसीने छूट गये – ‘मगर यह अ आ---पको कैसे मालूम?’
‘सुजान को एक बार देखने की जहमत करो शायद कुछ समझ में आये I गालियाँ तो बहुत दे चुके हो I ’
आनंद को काटो तो खून नहीं I वह बदहवास होकर सुजान की ओर भागा और उसकी ओढ़नी पूरी ताकत से खींच ली I उसके सामने चश्मेतर शाजिया खड़ी थी I आनंद ने बेखुदी में उसे बाहों में समेट लिया I यमुना की धारा जैसे पल भर के लिए थम गयी I
दोनों रोते-रोते थक गये, तब आनंद ने कहा- ‘मुझे स्वप्न में भी यह गुमान नहीं था कि मेरी तुमसे कभी भेंट होगी I मैं यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि सुजान के रूप में मेरी शाजिया यहाँ होगी I पर तुम शिकारपुर से दिल्ली दरबार कैसे आ गयी?’
‘सब आज ही पूछ लोगे? कल के लिये कुछ नहीं छोड़ोगे? मुझे अपनी कोठी भी जाना है?’
‘आज रात हमारी मेहमान बन जाओ I तुमसे कितनी बातें करनी हैं?’
‘नहीं, मुझे जाना होगा I रात बाहर रहूँगी तो बात का बतंगड़ बन जाएगा I लोगों को सिर्फ एक मौक़ा चाहिए I फिर उंगली उठते देर नहीं लगती I बड़ी सख्ती और संयम से आबरू बचती है I मैं बादशाह से कह दूँगी कि मीर मुंशी और मैंने एक साथ एक ही गुरू से शिक्षा ली है और यह झूठ भी नहीं है, तब लोगो के मुख अपने आप बंद हो जायेंगे I ’
‘ठीक है शज्जो I मेरा घर पास में है I चलो, मैं तुम्हें भेजने की व्यवस्था कर देता हूँ I ’
‘अब शज्जो नहीं चलेगा, सुजान कहो I सभी कहते है I कभी तुम्हें शाजिया से सुजान बनने की कहानी भी सुनाऊँगी I पर मुझे नहीं पता था कि तुम मुझसे इतनी मोहब्बत करते हो I आनंद तुमने सुजान का माथा ऊँचा कर दिया I अब तुम्हारे प्यार के सहारे मैं एक तवायफ की जिंदगी भी आराम से काट लूँगी I ’
‘और मैं तुम्हारे सहारे I ’- आनंद ने दृढ़ता से कहा I
‘क्यों जिंदगी भर कुंवारे रहने का इरादा है?’
‘कुँवारा क्यों, मैं तुम्हें अपनी बीबी तस्लीम करूँगा I ‘
‘बड़े भोले हो सजन, बादशाह की अमानत में खयानत करोगे?’
‘सुजान तुम बादशाह की बीबी नहीं हो I ‘
‘तो क्या हुआ, उनके दरबार में तो हूँ, वे मेरे सरफराज हैं I ‘
‘सरफराज हैं, शौहर तो नहीं?’‘
‘ख्वाब मत देखो आंनंद, मैं शाजिया नहीं हूँ, तुम्हारी शाजिया तो जाने कब मर गयी I मैं सुजान हूँ, सुजानबानो I रक्काशाह-ए-हिंद और वैसे भी मैं तुम्हारे लायक रही ही कहाँ ?’
‘मैं ऐसा नहीं मानता I मेरे लिए शाजिया और सुजान में कोई फर्क नहीं I हाँ, यह तय है कि अब मैं शादी नहीं करूँगा I कभी तुमने मुँह फेर लिया तो भी नहीं I ’
सुजान ने आगे बढ़कर आनंद के मुख पर हाथ रख दिया और थरथराते हुए कहा - ‘खुदा की कसम, आईंदा कभी ऐसी बात जुबान पर मत लाना I इतनी बड़ी दुनिया में एक तुम्हीं हो जो मेरे अपने हो I मेरा भरोसा I मेरा विश्वास I मेरा सब कुछ I सुजान कभी मुँह नहीं फेरेगी I तुम्हें तो पता भी नहीं इतने दिन तुम्हारी याद में मैंने कैसे काटे -------?’
आनंद ने उसे आगे कुछ बोलने नहीं दिया और सुजान के अधरों को अपने अधरों से कीलित कर दिया I
( मौलिक व अप्रकाशित )
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जनाब गोपाल नारायण जी आदाब, सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
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