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"कुछ पलों का चाँद" - (लघुकथा) 28 __शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"कुछ पलों का चाँद" - ---(लघुकथा)

"अब रोने से क्या फायदा ? पहले सेे पैसों का इन्तज़ाम रखना था, और डाक्टरनी को पहले से ही कुछ एक हज़ार एडवांस दे देते, कम से कम सही टाइम पर ओपरेशन तो हो जाता !"

"पैसों का अच्छा इन्तज़ाम ही हो जाता, तो सरकारी की बजाय तुम्हें प्राइवेट अस्पताल में ही वक़्त से पहले ही भर्ती न करवा देता ! " जमीला की बात का जवाब देते हुए उसके शौहर नासिर ने कहा। -"मैंने कहा था न कि बिटिया ही होगी ! कितनी ख़ूबसूरत बिटिया दी थी अल्लाह मियाँ ने। तुम्हारे पास ही लिटाया था थोड़ी देर, सो तुमने उसे दुलार कर लिया। मुझे तो गोदी में भी लेने का मौक़ा नहीं मिला। सिर्फ ग़ुसल करवाते वक़्त एक झलक देख पाया था चाँद को ! फिर तो कफ़न में ही ले गया !"- नासिर की आँखों से पछतावे के आँसू लगातार बह रहे थे।

"अब पछताने सेे क्या हासिल ? दायी की बातों पर भरोसा क्यों किया सबने, देर से अस्पताल क्यों ले गये थे ? दम घुट गया था बेचारी का, दुनिया में आने से पहले ही !" - नाराज़ जमीला ने कुछ कड़क स्वर में कहा । उसने किसी तरह अपने जज़्बातों और आँसुओं को रोक रखा था । वो तो गनीमत रही कि अस्पताल से छुट्टी होने के बाद अब्बाजान उसे मायके ले गये थे, वरना क्या पता उसकी यहाँ कैसी देखभाल होती !

"पूरे आठ महीने बाद लौटी हो तुम मायके से। तुम्हारी देख-रेख तो कर ली मायके वालों ने ! बेटी के ग़म में मेरे क्या हाल थे, कभी सोचा मेरे बारे में ?" - नासिर ने इतना कहा ही था कि जमीला एकदम रोते हुए बोली- "तुमने कब मेरे बारे में सोचा ? तुम मर्दों के पास जब हैसियत नहीं, तो शादी क्यों करते हो, और शादी करते ही हो तो बच्चों के ख़्वाब क्यों देखते हो ? तुम्हें ख़ूबसूरत बेटी तो चाहिए थी, लेकिन पाल पाते बिटिया को ? कौन सी सदी के हिसाब से पालते ? अल्लाह जो करता है, ठीक ही करता है !" नासिर के पास किसी सवाल का कोई जवाब नहीं था।


(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2017 at 4:04am
मेरी इस ब्लोग-पोस्ट पर समय देने एवं प्रोत्साहित करने के लिए सभी पाठकगण को तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 16, 2015 at 5:08pm
रचना का अवलोकन कर हौसला अफज़ाई करने के लिए बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद आदरणीय Vijay Nikore जी।
Comment by vijay nikore on November 12, 2015 at 3:27pm

आति मार्मिक सुन्दर लघुकथा के लिए बधाई।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 11, 2015 at 12:01pm
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश वामनकर साहब। यह वार्तालाप आठ महीने बाद लौटी पत्नी के साथ चंद मिनटों का ही है जिसमें पहली मनचाही सन्तान के जन्म और मृत्यु की आकस्मिक घटना को याद कर रोना तथा आरोप- प्रत्यारोप मात्र हो रहे हैं। मेरे विचार से यहाँ किसी तरह का कोई कालांतर दोष नहीं है। मुझे भी सम्मान्य गुरूजन, वरिष्ठजन के मार्गदर्शन की प्रतीक्षा है। यह रचना पूरी तरह सत्य घटना पर आधारित है।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 10, 2015 at 1:34pm

आदरणीय उस्मानी जी बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है. कालखंड दोष को लेकर सशंकित हूँ. आदरणीय गुणीजनों से मार्गदर्शन निवेदित है सादर.

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 9, 2015 at 12:27pm
त्वरित प्रतिक्रिया देने व कथा के मर्म को समझ सत्य घटना पर आधारित लघु कथा पर प्रोत्साहक टिप्पणियाँ करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय Tej Veer Singh जी व आदरणीया Rahila जी ।
Comment by TEJ VEER SINGH on November 9, 2015 at 10:54am

हार्दिक बधाई शेख उस्मानी जी!बेहद दिलकश और मार्मिक लघुकथा!बडी बेबाकी और खूबसूरती से रचना को अंज़ाम दिया है!

Comment by Rahila on November 9, 2015 at 10:29am
बहुत मार्मिक और भावुक रचना । दोनों का दर्द एक ,इस बात को खूब उकेरा कसे शब्दों में । बहुत बधाई आपको इस रचना हेतु ।

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