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हौसला ( लघुकथा -जानकी बिष्ट वाही )

गोधूलि बेला में भी जब वह नौजवान उस चट्टान से नहीं उठा तो तो मेरा मन आशंकित हो उठा।साँझ तेजी से कालिमा के आगोश में समा रही थी और सागर की उत्ताल लहरें पागलों की तरह उस नौजवान के पाँवों से कुछ नीचे चट्टानों पर अपना सिर पटक रही थीं।
जब भी मैं कभी उदास या खुश होता हूँ तो यहाँ आकर सागर को निहारना मुझे सुक़ून देता है।

अब मैं घर जाना चाहता है पर उस नौजवान की भावभँगिमा मेरे पाँवों की बेड़ी बन मुझे रोक रही है।

"छोड़ो ,मुझे क्या? होगा कोई ? मैंने क्या सारी दुनिया का ठेका ले रखा है।"
ख़ुद को लताड़ लगाई, फिर वापसी के दो कदम चल कर वापस उस नौजवान के पास जा खड़ा हुआ।

ऩौजवान ने प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखा और खुद ही बोल पड़ा।

" मैं ,मरने नहीं जा रहा हूँ।"

इतना कह फिर दूर क्षितिज़ को निहारने लगा। नौजवान की आवाज़ सुनते ही मुझे लगा मेरे दिल और दिमाग की जकड़न खुलने लगी है।तसल्ली की साँस लेते हुए बोला-
"तुम्हारे मन में क्या चल रहा मैं नहीं जानता पर ये जानता हूँ कि तुम्हारे घर पर दो जोड़ी बूढ़ी आँखें ज़रूर तुम्हारी राह निहार रही होंगी।"

उसने मुझे जिन आँखों से देखा उससे मैं थोड़ा विचलित हो उठा।फिर वह अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और मेरे निकट आकर बोला-

" अब तक मैं चार नौकरियों से निकाला जा चुका हूँ।हर कम्पनी को जब लगता है वह मेरे भेजे को पूरी तरह निचोड़ चुके हैं तो लात मार बाहर कर देते हैं।अक्सर मैं सोचता हूँ कि ये प्राइवेट कम्पनियां अपने कामगारों को जिन्दा नहीं मुर्दा समझती हैं। ।"

उसकी बात सुन मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कह उसके आक्रोश को सांत्वना दूँ।
उसने नीचे झुक एक पत्थर उठाया और लहरों की तरफ़ उछाल दिया।

" अब तुम क्या करोगे ? नई नौकरी की तलाश ?"

" जो लोग जीते जागते लोगों को लाशों में बदल युवा सपनों की कब्र बना देते हैं , उन तक जाने वाली राह अब मैं नहीं जाने वाला।आज से मैं आज़ाद हूँ।और मेरी सोच उन्मुक्त है।अब मैं गाँव की बंज़र जमीनों को ज़िंदा करूँगा। जहाँ उम्मीदों की खेती करूँगा।"

"आमीन "
मेरे मुँह से बेसाख़्ता निकल गया।

उसने चमकती आँखों से मुझे देखा और चाँद रात से रोशन पगडंडी पर आगे बढ़ चला।


मौलिक एवम् अप्रकाशित
जानकी बिष्ट वाही
नॉएडा-उत्तर प्रदेश
23/9/17

Views: 843

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Comment by Dr. Vijai Shanker on September 25, 2017 at 2:02am
आदरणीय सुश्री जानकी बिष्ट जी , कुछ अलग सी इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई, सादर।
Comment by Janki wahie on September 24, 2017 at 6:53pm
हार्दिक आभार आ.मोहम्मद आरिफ़ जी।आपकी टिप्पणी उत्साह बढ़ाने वाली है।
Comment by Janki wahie on September 24, 2017 at 6:51pm
हार्दिक आभार आ. शहज़ाद जी, हर टिप्पणी रास्ता दिखाती है।
Comment by Mohammed Arif on September 24, 2017 at 7:48am
आदरणीया जानकी जी आदाब, बेहतरीन कथानक,अच्छा ताना-बाना, जिज्ञासा का संचार करने में सफल और सकारात्मक सोच की प्रतीक कथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 24, 2017 at 1:23am
"मैं" का बढ़िया प्रयोग।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 24, 2017 at 1:22am
दो पात्रों के मनोभाव/कशमकश को भाव-भंगिमाओं, संवादों और भूमिका में बांधते हुए बढ़िया समापन के साथ बढ़िया प्रस्तुति के लिए सादर हार्दिक बधाई आदरणीय जानकी बिष्ट वाही जी। शुरू की दस पंक्तियों व अंतिम संवाद को तनिक सम्पादित कर बेहतर रूप दिया जा सकता है मेरे विचार से।
Comment by Janki wahie on September 23, 2017 at 2:53pm
तहेदिल से शुक्रिया सखी,हौसला बढ़ाने के लिए।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 23, 2017 at 2:01pm

वाह वाह , बहुत ही बढ़िया कथा ,, अलग शैली और आपकी सशक्त लेखनी | बहुत ही सुंदर और सकारात्मक सन्देश | हार्दिक बधाई आदरणीया जानकी सखी | बहुत बहुत बधाई आपको |

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