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निर्दोषों के हत्यारों की,

क्या बस निंदा काफी है.

घाटी में आतंकी मिलकर,

दिखा रहे हैं दानवता.

हृदय विलखता लिए हुए हम,

ओढ़े बैठे सज्जनता.

तड़प रही है भारत माता,

जयचंदों को माफ़ी है.

जाति धर्म की राजनीति में,

इंसान हो रहा गायब.

चमचों की कोशिश रहती है,

रहे हमेशा खुश साहब.

भोली जनता को गोली है,

पल पल नाइंसाफी है.

टूट गए हैं सारे सपने,

रुदन कर रहीं अबलाएँ.

बार बार वे प्रश्न पूछकर,

दग्ध हृदय को और तपाएँ.

टी वी पर चल रहे तमाशे,

होती फोटोग्राफी है.

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Ravi Shukla on July 19, 2017 at 10:53am

आदरणीय बसंत कुमार जी अच्‍छा गीत रचा है आपने भाव और कथ्‍य दोनो अच्‍छे लगे इसके लिये बधाई स्‍वीकार करें । सादर

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 18, 2017 at 7:55pm

अच्छी कविता हुई है आदरणीय हार्दिक बधाई |

कृपया ध्यान दे...

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