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ग़ज़ल- यूँ निभाते हैं यहाँ फर्ज निभाने वाले

2122 1122 1122 22
मांग इनसे न दुआ जख़्म दिखाने वाले ।
दौलते हुस्न में मगरूर ख़जाने वाले ।।

जो निगाहों की गुजारिश से खफा रहता है ।
कितने जालिम हैं अदाओं से जलाने वाले ।।

एक मुद्दत से तेरी राह पे ठहरी आँखें ।
क्या मिला तुझ को हमे छोड़ के जाने वाले ।।

था रकीबों का करम शाख से टूटा पत्ता ।
यूं निभाते है यहां फर्ज ज़माने वाले ।।

टूट जाते है वो रिश्ते जो कभी थे चन्दन ।
इश्क़ क्यों जुर्म है मजहब को चलाने वाले ।।

मेरी उल्फत के जनाजे को उठाया जिस दिन ।
कुछ नकाबों में मिले तेरे घराने वाले ।।

चाँद देखोगे तो इस चैन का जाना मुमकिन ।
रुख से महबूब के पर्दे को हटाने वाले ।।

है फरेबों का चलन दिल न लगाना हमसे ।
लूट जाते हैं हमें रोज फ़साने वाले ।।

पूछ हमसे न कभी नींद का आलम क्या है ।
रात यादों में सताते है जगाने वाले ।।

रूठ जाए तो उसे प्यार से सज़दा करना ।
याद रखना , हैं कई और मनाने वाले ।।

नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 2, 2016 at 11:44am

हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by Nidhi Agrawal on December 2, 2016 at 10:44am

बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल हुई है आदरणीय नविन जी 

Comment by Samar kabeer on December 1, 2016 at 5:04pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
आठवें शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ेन का दोष है,देखियेगा ।

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