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इतने सारे फंदे- डा 0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव

बहुत से फंदे है

उनके पास

छोटे-बड़े नागपाश

इन फंदों में

नहीं फंसती उनकी गर्दन

जो इसे हाथ में लेकर

मौज में घुमाते है

लहराते है

किसी गरीब को देखकर

फुंकारता है यह

काढता है फन 

किसी प्रतिशोध भरे सर्प सा

लिपटता है यह फंदा

अक्सर किसी निरीह के  

गले में कसता है

किसी विषधर के मानिंद

और चटका देता है

गले की हड्डियाँ

किसी जल्लाद की भांति 

 

मुस्कराता है यह फंदा

हंसता है वितृष्ण हंसी

देखता है अपने 

उन आकाओं की ओर

जिनके हाथ में है उसकी डोर

जिनके परस से

ढीला पड़ जाता है वह

किसी मरे हुये सांप की तरह

जैसे धूप तपाती है गरीब को

जैसे शीत कंपाती है गरीब को 

जैसे दरिद्रता सताती है गरीब को

जैसे भूख मार देती है गरीब को

वैसा ही दुश्मन-ए-गरीब है यह फंदा

नाचता है यह

अमीरों की उंगली पर

काँपता है यह पावर के नाम से

थरथराता है यह उन सारी ताकतों से

जिनमे है हौसला

इसे खंड-खंड करने का

इसको तोड़ने का अपरूप करने का

अपने पावर का बटन

दबाये रखने का

 

पर इसे तोड़ना भी

एक अपराध है   

अपराध कर हर कोई नहीं छूटता

किसी लुटरे को कोई नहीं लूटता

वैसे ही फंदे को

अशक्त नही मापते

मेरे जैसे निर्बल

इसकी हर बला से कांपते

एक दिन आखिर

वह मुझसे टकरा गया

बोला –‘बच नहीं पाओगे ,

इतनी सारे फंदे हैं,

किसी में नप जाओगे

घटिया से कवि हो

कहीं भी खप जाओगे

मुझको देखो मैं 

फंदों में एक फंदा हूँ  

मुझ पर विश्वास करो

पूरी तरह अँधा हूँ

कोई मुझ अंधे से ज्यों ही टकराता है

और उसमे पावर का करेंट नहीं आता है

बस मैं चिपक जाता हूँ

 

मैं  कोई माफिया नहीं

न कोई अफलातून हूँ

न ही किसी पागल का

लिखा मजमून हूँ

मैं कुछ दरिन्दों की

नसों का बहता खून हूँ

फंदा तो आचरण है

मैं देश का कानून  हूँ  !

( मौलिक व् अप्रकाशित ) 

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Comment

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Comment by pratibha pande on October 26, 2015 at 7:19pm

एक दिन आखिर

वह मुझसे टकरा गया

बोला –‘बच नहीं पाओगे ,

इतनी सारे फंदे हैं,

किसी में नप जाओगे

घटिया से कवि हो

कहीं भी खप जाओगे.......आपकी रचना का फंदा भी देर तक सोचने के लिए विवश कर रहा है आदरणीय बधाई इस रचना पर सादर 

Comment by kanta roy on October 26, 2015 at 5:52pm

बेहद कठोर भाव लिए फंदे का , अंदर तक मन सिहर उठा है पढ़कर।  सादर नमन 

Comment by Samar kabeer on October 25, 2015 at 11:13pm
आली जनाब डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,आदाब,बहुत अच्छे मौज़ू पर क़लम उठाया है आपने,कविता की तवालत पाठक को बाँधे रखने में कामयाब है और ये आपकी लेखनी का जादू है जो सर चढ़कर बोल रहा है ,इस अच्छी कविता के लिये दिल की गहराईयों से दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ,क़ुबूल फ़रमाऐं ।
Comment by Rahila on October 25, 2015 at 9:38pm
बहुत, बहुत ही बेहतरीन। अंत में जाकर समझ पाई कि इतना गुणगान आखिर हो किस का रहा है । बहुत सुन्दर, आदरणीय गोपाल नारायण जी । सादर नमन आपको ।

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