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नज़र इंसान की घातक हुई क्या?-- ग़ज़ल -- मिथिलेश वामनकर

1222---1222---122

 

नज़र इंसान की घातक हुई क्या?

अभी नासाफ़ थी, हिंसक हुई क्या?

 

भरोसा जिन्दगी से उठ गया जो

अचानक मौत की दस्तक हुई क्या?

 

हमारे पाँव चिपके जा रहे है

नदीम उनकी गली चुम्बक हुई क्या?

 

अँधेरा हो गया है झुग्गियों में

महल में फिर वही रौनक हुई क्या?

 

यहाँ दुःख आ गया जो ताल देने

किसी की कामना मोहक हुई क्या?

 

इबारत सा मुझे क्यों ताकता है?  

मेरी सूरत कोई पुस्तक हुई क्या?

 

यहाँ हर सिम्त बुत बिखरें हुए हैं

अकीदत आपकी पूजक हुई क्या?

 

सवेरे से बहुत खामोश घर है

वही फिर आपसी बकझक हुई क्या?

 

दलालों की तबस्सुम खिल रही है 

नज़र उनकी कहीं चस्मक हुई क्या?

 

ख़ुशी कमजर्फ की आजाद देखी

किसी की आरज़ू बंधक हुई क्या?

 

अचानक से ग़ज़ल फिर हो गई है

हमारी वेदना सर्जक हुई क्या?

 

सलीका क्या सुखन का, क्या बताएं?

हमारी लेखनी मानक हुई क्या?

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by Sushil Sarna on September 14, 2015 at 9:20pm

ख़ुशी कमजर्फ की आजाद देखी
किसी की आरज़ू बंधक हुई क्या?
वाह आदरणीय मिथिलेश भाई साहिब बेहतरीन अशआर बने हैं … हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

कृपया ध्यान दे...

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