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वो माँ विहीना / लघुकथा / कान्ता राॅय

बचपन में ही माँ का स्वर्गवास हो जाना और पिता का दुसरी शादी ना करने का निर्णय उस नन्हीं सी जान का अपने मामा के यहाँ पालन - पोषण का कारण बनी ।

मामी के सीने पर मूंग दलने के समान होने के बावजूद वो पल - पल बढती हुई ,उससे पिंड छुडाने के आस अब जाकर पूरी हो चुकी थी ।

शहर में पिता के पास पहुँचा दी गई ।
पिता को क्या मालूम बेटियाँ कैसे पाली जाती है !
लेकिन बेटी को मालूम था कि बेटियाँ माँ ,बहन और बेटी कैसे बनती है इसलिए दिन सुहाने से हो चले थे पिता और पुत्री दोनों के ।

खुशियाँ दो दिन की ही मेहमान ठहरी । खुशियों के पैरों में चक्कर होते है इसलिए वो टिक कर कहीं नहीं रहती है ।

बिना माँ की जवान होती बेटी पर अचानक रिश्तेदार से लेकर आस - पडोस वाले तक कोई बाप तो कोई माँ , भाई की भूमिका के आड़ में उस पर नजर रखने लगे ।

पिता को अपनी बेटी से अधिक दुसरे बेटी वालों के तजुर्बे पर अधिक भरोसा था ।

माँ की ममता तलाशती हुई उस माँ विहीना को सिर्फ शक , ताने और सौ प्रतिबंध मिले ।
वो मासूम आज भी पिता के अंगुलियों के सहारे उनके हथेलियों में .... संवेदनहीन आँचलो के नीचे माँ को तलाशती फिरती चलती है ।



मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 12:01pm

आदरणीया कांता जी, माँ विहीना का बहुत मार्मिक चित्रण हुआ है. बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर. सादर 

Comment by TEJ VEER SINGH on August 9, 2015 at 8:29pm

आदरणीया कान्ता जी,एक मॉ के बिना बच्ची का बचपन किन पथरीली और कंटीली पगडंडियों से गुजरता है, बहुत खूबसूरती से वर्णन किया है!हार्दिक बधाई!

Comment by pratibha pande on August 9, 2015 at 6:49pm

आपकी तीखी लेखनी से कुछ अलग हट के .माँ विहीना का दर्द बहुत मार्मिक है आ० कांता जी ,बधाई , और एक क्षमा निवेदन भी कि लाइव गोष्ठी में कुछ सिस्टम की तकनीकी खामियों की वजह आपसे मुखातिब नहीं हो पाई थी.

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