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" भाईसाहब , आपका शुभनाम ?
" जी , राजेश कुमार "।
" और आगे ?
" बस इतना ही , क्यों ?
" मेरा मतलब था कि कोई टाइटल नहीं लगाते आप "।
" जरुरी है क्या ", लहज़ा तल्ख़ हो गया ।
" अब लोगों को पहचाने भी तो कैसे ", अजीब सी नज़रों से देखते हुए वो आगे बढ़ गया ।
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by Shubhranshu Pandey on June 23, 2015 at 11:07pm

आदरणीय विनय जी, 

आपकी रचना एक सत्य है, कुछ जगहों पर तो बस या ट्रेन में अनजान लोगों से बात की शुरुआत ही इसी प्रश्न से होती है. 

सुन्दर कथा.

सादर.

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on June 23, 2015 at 5:04pm
आद: विनय जी 'सर नेम' की पूंछ पर अप्रत्यक्ष रूप से कटाक्ष करती बेहतरीन लघुकथा।
सादर बधाई स्वीकार करे।
Comment by विनय कुमार on June 22, 2015 at 8:22pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी .

Comment by विनय कुमार on June 22, 2015 at 8:21pm

बहुत बहुत आभार आदरणीया कांता रॉय जी .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 22, 2015 at 12:11pm

बहुत बढ़िया  आदरणीय .

Comment by kanta roy on June 22, 2015 at 10:26am
लोगों को पहचाने कैसे ?.......बहुत बडी़ बात कह दिया है आपने सर जी । सामने जो शख़्स खड़ा है , उसकी वो शख्सियत काफी नहीं होती है अक्सर ....... जातिवाद सोच पर बेहद सटीक रचना ...... बधाई आदरणीय विनय सर जी

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