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पुलक तरंग जान्हवी

पुलक तरंग जान्हवी,
हरित ललित वसुंधरा,
गगन पवन उडा रहा है
मेघ केश भारती।

श्वेत वस्त्र सज्जितः
पवित्र शीतलम् भवः
गर्व पर्व उत्तरः
हिमगिरि मना रहा।

विराट भाल भारती
सुसज्जितम् चहुँ दिशि
हरष हरष विशालतम
सिंधु पग पखारता।

कोटि कोटि कोटिशः
नग प्रफ़्फ़ुलितम् भवः
नभ नग चन्द्र दिवाकरः
उतारते है आरती।

ओम के उद्घोष से
हो चहुँदिश शांति
हो पवित्रं मनुज मन सब।
और मिटे सब भ्रान्ति।

मौलिक एवं अप्रकाशित
आदित्य कुमार

Views: 907

Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 14, 2015 at 10:48pm

बहुत ही सुन्दर कविता हुयी है!हार्दिक बधाई!

Comment by Aditya Kumar on June 13, 2015 at 4:16pm

 श्री  गिरिराज भंडारी जी सादर धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 13, 2015 at 4:10pm

लाजवाब रचना , आदरनीय हार्दिक बधाइयाँ  आपको ।

Comment by Aditya Kumar on June 13, 2015 at 3:20pm

सुनील प्रसाद(शाहाबादी) जी सादर धन्यवाद

Comment by Aditya Kumar on June 12, 2015 at 8:52pm

सादर धन्यवाद अग्रज श्री  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव  

आप मार्गदर्शन करते रहेंगे तो अवश्य ही सुधार कर सकूँगा .

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 12, 2015 at 8:33pm
सुन्दर शब्द संयोजन
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 12, 2015 at 8:18pm

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती / पञ्च चामर  छंद  पर यह प्रयास --प्रयास दृष्टि से बढिया है पर छंद के शिल्प को समझना होगा . सस्नेह .  

Comment by Aditya Kumar on June 12, 2015 at 7:35pm

हार्दिक धन्यवाद कबीर जी 

Comment by Samar kabeer on June 12, 2015 at 7:02pm
जनाब आदित्य कुमार जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।

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