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कोई मांग रहा, कोई छीन रहा।

कोई मांग रहा,
कोई छीन रहा।
तेरा मेरा करता मानव,
सब पा कर भी क्यों दीन रहा।

पत्थर युग से,
मंगल युग तक।
सूरत बदली मूरत बदली,
मन से फिर भी हीन रहा।

छू ले चांद,
कई बार भले।
पर धरती की अनदेखी है,
जहां बचपन कूड़ा बीन रहा।

क्षण भर 'देवी',
फिर खेल खिलौना।
धरा गगन को रोना आया,
तू ईश होकर भी,
समाधि में ही लीन रहा।

जीत लिया जग,
बना सिकंदर।
जाते जाते अपने दो क्षण,
विश्व विजेता मुर्दो का,
क्यों छीन रहा क्यों छीन रहा

'विरेन्दर वीर मेहता'

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 3, 2015 at 10:44pm

वाह! वाह! वाह! बेहतरीन! हार्दिक बधाई आ० मेहता जी!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on June 3, 2015 at 6:57pm

बेहतरीन रचना है बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by Shyam Narain Verma on June 3, 2015 at 4:48pm

लाजवाब रचना है बहुत बहुत बधाई आपको

सादर ,

Comment by Samar kabeer on June 3, 2015 at 2:49pm
जनाब विरेन्द्र वीर मेहता जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकर करें ।
Comment by विनय कुमार on June 3, 2015 at 12:36pm

//पर धरती की अनदेखी है,
जहां बचपन कूड़ा बीन रहा// , बहुत सुन्दर गीत हुआ है आदरणीय वीर मेहता जी , दिल से बधाई कुबूल करें..

Comment by narendrasinh chauhan on June 3, 2015 at 11:30am

बहोत उम्दा कविता  सुन्दर

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on June 3, 2015 at 10:46am

बहुत सुंदर गीत हुआ है बधाई ...तू ईश होकर भी, समाधि में ही लीन रहा।... वाह ....सादर 

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