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नूर -अतुकांत/ छंदमुक्त रचना

चाँद,

फ़क़त तुम्हारा नहीं,

मेरा भी है.

इसलिए नहीं की मै,

उसे निहारता हूँ

किसी रेतीले किनारे से

या इंतज़ार करता हूँ,

ईद के चाँद का.

मै व्रत भी नहीं रखता,

किसी तीज या चौथ का.

फिर भी चाँद मेरा भी है.

इसलिए, कि  मै जहाँ जाता हूँ,

ये मेरे पीछे पीछे चला आता है.

मेरे हमसाये की तरह.

और मेरा हाल-ए–दिल

बयां कर देता है उसके सामने

जो मुझसे मीलों दूर है.

.
.

चलो...

एक समझौता कर लें,

इस बात का फैसला कर लें,

कि चाँद कितना तुम्हारा है,

और कितना मेरा.

यूँ कर लेते है कि बस,

बाँट लेते है हम तुम

अपने अपने हिस्से का चाँद.

जिस ओर भी चाँद में रौशनी हो,

वो हिस्सा तुम रख लेना.
और अँधेरे वाला हिस्सा
कर देना मेरे हवाले.

दरअसल वही हिस्सा तो

मुझे सूट भी बहुत करता है.

आदत जो हो गयी है,

इतने बरसों से

गुमनामी के अँधेरों में रहने की

तुम्हारे बगैर......
.
नूर
मौलिक /अप्रकाशित 

Views: 759

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 27, 2015 at 2:12pm

शुक्रिया आ. मिथिलेश जी 
क्या वज़्नो बह्र के बग़ैर इसे नज़्म कहना ठीक होगा?
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 27, 2015 at 1:59pm

शुक्रिया आ. जितेन्द्र भाई..
बस यूँ ही आवारा ख़यालों को बाँधने का मन हो गया 
सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 27, 2015 at 1:59pm
बहुत प्यारी नज़्म हुई है आदरणीय नीलेश जी। हार्दिक बधाई।
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 27, 2015 at 12:10pm

बाँट लेते है हम तुम

अपने अपने हिस्से का चाँद.

जिस ओर भी चाँद में रौशनी हो,

वो हिस्सा तुम रख लेना.
और अँधेरे वाला हिस्सा
कर देना मेरे हवाले.

दरअसल वही हिस्सा तो

मुझे सूट भी बहुत करता है.

आदत जो हो गयी है,

इतने बरसों से

गुमनामी के अँधेरों में रहने की

तुम्हारे बगैर

एक संजीदा गजलकार की अतुकांत, दिल को छू गई. बहुत सुंदर, आदरणीय निलेश जी   .....

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