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“ हे. भगवान..बस! एक पोते की कामना थी,  वो भी पूरी नहीं हो पाई इस बार. तीन-तीन पोतियों की लाइन लग गई ” अपनी बहु के कमरे से बाहर, खले की ओर जाते हुए मन में बडबडा ही रही थी, कि

“ माँ!! मैं बाजार जा रहा हूँ, कुछ लाना हो बता दो ” बेटे ने पूछा

“ हाँ! बेटा.. गुड़ ले आना, वो बूढी गाय न जाने कब जन जाए, अब की बार बछिया ले आये तो आगे भी घर का दूध मिल जाया करेगा “

      जितेन्द्र पस्टारिया

   (मौलिक व् अप्रकाशित)    

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Comment by Hari Prakash Dubey on February 5, 2015 at 2:20pm

आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया साहब ,कई बार पढ़ा इस रचना को , अपने सन्देश को संप्रेषित  करती प्रभावशील लघु कथा ,हार्दिक बधाई !

Comment by savitamishra on February 5, 2015 at 12:28pm

स्वार्थ पूर्ति हो तो भला वर्ना खला

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 5, 2015 at 11:31am

आप सही कह रहें है आदरणीय डा. विजय जी. आजकल बस! स्व अर्थ ही रह गया है. रचना पर आपके आशीर्वाद का ह्रदय से आभारी हूँ. सादर!

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 5, 2015 at 11:11am
कामनाओं का अर्थ , अर्थ में सीमित रह गया , बधाई , इस प्रस्तुति पर प्रिय जीतेन्द्र जी , सादर ,

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