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गज़ल - जलते नयन बेतहाशा - इमरान

221 221 22

ठंडी पवन बेतहाशा,
जलते नयन बेतहाशा।

धरती पराई, सताये,
यादे वतन बेतहाशा।

ज़िन्दा अगर हो तो सुन्न क्यों,
ख़ूने बदन बेतहाशा।

मैला बदन कैसे पहनूँ,
उजला क़फन बेतहाशा।

मौसम चुनावी, मिलेंगे,
झूठे वचन बेतहाशा।

नेता न छोड़ेंगे करने,
भारी गबन बेतहाशा।

माज़ी जिगर का बना है,
कोई वज़न बेतहाशा।

मिलने लगे हैं कुछ अपने,
डाले शिकन बेतहाशा।

देखो न अंधा बना दे,
सिक्कों की खन बेतहाशा।

आकर न दें वो गवाही,
भेजे समन बेतहाशा।

उबरे हर इक बार हमने,
झेले पतन बेतहाशा।

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment by भुवन निस्तेज on April 10, 2014 at 1:46pm

बधाई 

Comment by इमरान खान on April 10, 2014 at 10:40am
विशाल साहब आपका हार्दिक धन्यवाद
Comment by इमरान खान on April 10, 2014 at 10:37am
शुक्रिया गिरिराज साहब

यहाँ 'सुन्न' को 'सुन' करके पढ़ें
Comment by इमरान खान on April 10, 2014 at 5:45am
विजय मिश्र साहब शुक्रिया आपकी नवाजिशों का
Comment by इमरान खान on April 10, 2014 at 5:41am
लक्षमण धामी साहब आपका हार्दिक धन्यवाद
Comment by इमरान खान on April 10, 2014 at 5:37am
राजेश कुमारी साहिबा आपकी हौसला अफज़ाई और बेशकीमती टिप्पणी के लिए धन्यवाद।

यहाँ मैंने 'खन' का प्रयोग 'खन खन' या खनखनाहट के लिए किया है।
Comment by इमरान खान on April 10, 2014 at 5:02am
जितेन्द्र 'गीत' साहब मैं तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आपका
Comment by इमरान खान on April 10, 2014 at 5:00am
हैसला अफज़ाई का शुक्रिया गीतिका 'वेदिका' साहिबा
Comment by इमरान खान on April 10, 2014 at 4:59am
शुक्रिया गुमनाम साहब
Comment by इमरान खान on April 10, 2014 at 4:57am
आपका शुक्रिया कुंती मुखर्जी साहिबा

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