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रात थी लेकिन अँधेरा उतना भी गहरा न था- ग़ज़ल

2122- 2122- 2122- 212

रात थी लेकिन अँधेरा उतना भी गहरा न था

सब दिखाई दे गया आँखो में जो पर्दा न था

 

झूठ की बुनियाद पर कोई महल बनता नहीं

झूठ आखिर झूठ है उसको तो सच होना न था

 

शोर था सारे जहाँ में इक लहर की बात थी

कोई दा'वा उस लहर का अस्ल में सच्चा न था

 

कहने को तो साथ मेरे कारवाँ था लोग थे

मैं वही था हाँ मगर वो दौर पहले सा न था

 

ये सफर गुज़रा बड़े आराम से तो अब तलक

आखिरश रुकना पड़ा मुझको कि अब रस्ता न था

 

आप अपनी हैसियत को लें समझ अब मोहतरम

वो सिकंदर भी झुका था जो कभी हारा न था

 

उँगलियाँ थी नाम थे पहचान थी सबकी मगर

वे सभी बस वोट थे उनका कोई चेहरा न था   

 

 मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by coontee mukerji on April 3, 2014 at 4:44pm

आप अपनी हैसियत को लें समझ अब मोहतरम

वो सिकंदर भी झुका था जो कभी हारा न था......वाह बहुत खूब

 

Comment by Shyam Narain Verma on April 3, 2014 at 10:26am
बहुत सुन्दर गजल।  ढेरों दाद कुबूल करें। सादर.....................

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Comment by शिज्जु "शकूर" on April 3, 2014 at 6:57am

भाई जितेन्द्र जी आपकी मौजूदगी हमेशा ही उत्साहवर्धक होती है रचना की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on April 3, 2014 at 6:55am

भाई आशीष जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया

//टोपी-मफलर वालों को खासा पसंद आएगा// ये टोपी मफलर वालों से ज्यादा गुजरात वालों को मज़ा आयेगा :-)


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 3, 2014 at 6:48am

आदरणीय नादिर भाई रचना की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 2, 2014 at 11:22pm

झूठ की बुनियाद पर कोई महल बनता नहीं

झूठ आखिर झूठ है उसको तो सच होना न था............बहुत खूब, कटु -सत्य

शोर था सारे जहाँ में इक लहर की बात थी

कोई दा'वा उस लहर का अस्ल में सच्चा न था...........गजब शेर कहा

लाजवाब गजल कही आपने, एक से बढ़कर एक शेर हुए. दिली दाद कुबूल कीजिये आदरणीय शिज्जू जी

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on April 2, 2014 at 11:16pm

शोर था सारे जहाँ में इक लहर की बात थी

कोई दा'वा उस लहर का अस्ल में सच्चा न था |   

वाह वाह !! बड़ा सामयिक शेर कह दिया है आपने | टोपी-मफलर वालों को खासा पसंद आएगा |

ये सफर गुज़रा बड़े आराम से तो अब तलक

आखिरश रुकना पड़ा मुझको कि अब रस्ता न था    क्या कहने.. वाह !!

उँगलियाँ थी नाम थे पहचान थी सबकी मगर

वे सभी बस वोट थे उनका कोई चेहरा न था  |     महत्वपूर्ण..

बढ़िया ग़ज़ल पर दाद क़ुबूल करें शिज्जु भाई जी !!

Comment by नादिर ख़ान on April 2, 2014 at 10:43pm

झूठ की बुनियाद पर कोई महल बनता नहीं

झूठ आखिर झूठ है उसको तो सच होना न था..... बहुत सही

 

शोर था सारे जहाँ में इक लहर की बात थी

कोई दा'वा उस लहर का अस्ल में सच्चा न था  ....क्या बात 

आप अपनी हैसियत को लें समझ अब मोहतरम

वो सिकंदर भी झुका था जो कभी हारा न था..... सही है जो पेड़  झुकते नहीं है, अक्सर हवा के झोंको से  टूट जाते है ।

आदरणीय शिज्जु जी समसामयिक विषय पर बहुत ही सार्थक गज़ल कही आपने, ढेरों शुभकामनायें ।

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