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भोर का तारा छिपा जाने किधर है //गज़ल //कल्पना रामानी

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आज खबरों में जहाँ जाती नज़र है।

रक्त में डूबी हुई, होती खबर है।

 

फिर रहा है दिन उजाले को छिपाकर,

रात पूनम पर अमावस की मुहर है।

 

ढूँढते हैं दीप लेकर लोग उसको,

भोर का तारा छिपा जाने किधर है।  

 

डर रहे हैं रास्ते मंज़िल दिखाते,

मंज़िलों पर खौफ का दिखता कहर है।

 

खो चुके हैं नद-नदी रफ्तार अपनी,

साहिलों की ओट छिपती हर लहर है।

 

हसरतों के फूल चुनता मन का माली,

नफरतों के शूल बुनती  सेज पर है। 

 

आज मेरा देश क्यों भयभीत इतना,

हर गली सुनसान, सहमा हर शहर है।

मौलिक व अप्रकाशित

कल्पना रामानी

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Comment

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Comment by कल्पना रामानी on December 8, 2013 at 6:15pm

आदरणीया मीना जी, कुंती जी, प्राची जी, सविता जी,आदरणीय अरुण शर्मा जी , अजय जी  गिरिराज जी,गोपाल जी, अभनव अरुण जी,

आप सबकी प्रोत्साहित करती हुई  टिप्पणियों के लिए हृदय से आभारी हूँ।

सादर

Comment by Abhinav Arun on December 8, 2013 at 5:33am

आज मेरा देश क्यों भयभीत इतना,

हर गली सुनसान, सहमा हर शहर है।..आदरणीया कल्पना जी यह एक शेर ..अप्रतिम ..सम्पूर्ण है... हालात को आईना दिखाती ग़ज़ल ..विमर्श को आत्मचिंतन को प्रेरित करती इस ग़ज़ल लिए हार्दिक साधुवाद उत्तम प्रस्तुति !!!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 7, 2013 at 10:58pm

महनीया

फिर  रहा है दिन ----------

क्या बात है ?

बेमिसाल  i बेमिसाल i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 7, 2013 at 10:49pm

आदरणीया कल्पना जी , बहुत सुन्दर गज़ल कही है , हर शे र अच्छे हुये हैं , आपको हार्दिक बधाई !!!!

 

Comment by ajay sharma on December 7, 2013 at 10:34pm

bahut hi acchhi gazal huyi hai .......

खो चुके हैं नद-नदी रफ्तार अपनी,

साहिलों की ओट छिपती हर लहर है।

kya baat hai 

Comment by savitamishra on December 7, 2013 at 7:23pm

बहुत खुबसूरत ...

आज मेरा देश क्यों भयभीत इतना,

हर गली सुनसान, सहमा हर शहर है

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 7, 2013 at 6:01pm

आदरणीया कल्पना रमानी जी बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही है आपने सभी शेर अच्छे बन पड़े हैं बहुत बहुत बधाई आपको.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 7, 2013 at 5:58pm

आदरणीया कल्पना रामानी जी 

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही है..

ये दो शेर ख़ास तौर पर पसंद आये 

फिर रहा है दिन उजाले को छिपाकर,

रात पूनम पर अमावस की मुहर है।

 

ढूँढते हैं दीप लेकर लोग उसको,

भोर का तारा छिपा जाने किधर है।  

बहुत बहुत बधाई 

Comment by coontee mukerji on December 7, 2013 at 3:42pm

हसरतों के फूल चुनता मन का माली,

नफरतों के शूल बुनती  सेज पर है। .............लाजवाब.कल्पना जी.शुभकामनाएँ

Comment by Meena Pathak on December 7, 2013 at 1:46pm

बहुत सुन्दर गज़ल आ० कल्पना दी | सादर बधाई स्वीकारें 

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