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कभी गिरते कभी उठते कभी सभलना सीख जाते हैं ।
मंज़िल उनको मिलती है जो चलना सीख जाते हैं ।

नये हर एक मौसम में नया आगाज़ करते हैं ,
वक्त के साथ जो खुद को बदलना सीख जाते हैं ।

बनके दरिया वो बहते हैं और सागर से मिलते हैं ,
जो बर्फीले सघन पत्थर पिघलना सीख जाते हैं ।

उन्होंने लुत्फ़ लूटा है बहारों कि इबादत का ,
बीज मिट्टी में मिट मिट कर जो मिलना सीख जाते हैं ।

अजब सौन्दर्य झलकाते बिखेरें रंग और खुशबू ,
जो काँटों और कीचड़ में भी खिलना सीख जाते हैं ।

मौलिक व अप्रकाशित
नीरज 'प्रेम'

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on November 26, 2013 at 7:02pm

  आ0 प्रेम जी रचना के भाव बहुत अच्छे है कथ्य भी अच्छा  है , सुंदर प्रस्तुति बधाई । 

Comment by vijay nikore on November 26, 2013 at 6:53pm

रचना के भाव अच्छे लगे, आदरणीय नीरज जी। बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by Neeraj Nishchal on November 26, 2013 at 6:09pm

धन्यवाद श्याम नारायण वर्मा जी ।

Comment by विजय मिश्र on November 26, 2013 at 4:19pm
प्रेरणास्पद भाव और सुंदर गजल ,बधाई नीरजजी
Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 26, 2013 at 2:07pm

बनके दरिया वो बहते हैं और सागर से मिलते हैं ,
जो बर्फीले सघन पत्थर पिघलना सीख जाते हैं...बेहतरीन ग़ज़ल का मेरा पसंदीदा शेर..आपको ढेरों बधाई नीरज जी 

Comment by Meena Pathak on November 26, 2013 at 2:02pm

बहुत सुन्दर , बधाई स्वीकारें आदरणीय 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 24, 2013 at 7:44pm

नीरज जी

आपकी  ग़ज़ल अच्छी है  

मंजिल उनको मिलती है ------

Comment by Sushil Sarna on November 24, 2013 at 11:04am

bhaavnaaon ati sundr prastutikarna...haardik badhaaee

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 24, 2013 at 1:23am

सुंदर भावनात्मक रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय नीरज भाई

Comment by वेदिका on November 23, 2013 at 9:55pm

रचना मे अच्छा कथ्य है| रचना किस विधा मे है?

सादर!!

कृपया ध्यान दे...

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