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शर्म से हम आँख मीचे क्यूँ रहें

शर्म से हम आँख मीचे क्यूँ रहें

दौड़ है सोहरत की पीछे क्यूँ रहें

 

तब हुए पैदा जमीं पे अब मगर

हौसलों के पर हैं नीचे क्यूँ रहें

 

सच का लज्जत चख चुके हैं हम यहाँ

फिर बता दो हम भी तीखे क्यूँ रहें

 

जानते हैं फल में कीड़े कब लगे

इस कदर फिर हम भी मीठे क्यूँ रहें

 

जिन लकीरों ने कराई जंग है

“दीप” अब तक उनको खींचे क्यूँ रहें

 

संदीप कुमार पटेल “दीप”

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on September 23, 2013 at 7:48pm
आदरणीय संदीप जी बहुत बढ़िया गजल , सभी अशर गहरे भावों को बयां करता हुआ । आपको बहुत बधाई ।
Comment by Meena Pathak on September 23, 2013 at 7:34pm

बहुत सुन्दर गज़ल .. बधाई आप को 

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 23, 2013 at 7:21pm

खूबसूरत ग़ज़ल की बधाई संदीप भाई। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 23, 2013 at 5:44pm

आदरणीय गिरिराज जी मेरी बात छोड़िये यहाँ गुणीजनों और मंच के सभी जानकारों के कहने के बाद भी रचनायें ब्लॉग पोस्ट में यथावत हैं रचनाकार या तो सुझावों से सहमत नहीं हैं या संपादित करने की जहमत नही उठाना चाहते, यह प्रबंधन समिति से जानना चाहता हूँ क्या एक बार पोस्ट करने के बाद त्रुटियों को दूर कर संपादित रचनाओं को पोस्ट करने की अनुमति नही है?? मैं आदरणीय संदीप जी से मुआफ़ी माँगना चाहता हूँ कि मैंने ये प्रश्न उनकी ग़ज़ल वाले भाग में किया है। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 23, 2013 at 5:43pm

आदरणीय गिरिराज सर शोहरत भी मान्य है और उसका वज्न भी 22 है इसे आप यूँ पढ़िये कि ह अर्द्धाक्षर है, सुझाव ज़रूर दिया जाना चाहिये, यहाँ "सोहरत" को "शोहरत" या "शुह्रत" करने का सुझाव, 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 23, 2013 at 5:22pm

आदरणीय शिज्जू भाई , शोहरत  लिखा हो तो भी हमे सुधार कर शुह्रत पढ़ ले ना चाहिये , या  सुधार लेने की सलाह देनी चाहिये ?

Comment by रविकर on September 23, 2013 at 5:20pm

हौसलों के पर हैं नीचे क्यूँ रहें-

जबरदस्त भाव-
शुभकामनायें प्रियवर "दीप"


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 23, 2013 at 4:58pm

आदरणीय गिरिराज जी दरअस्ल सही शब्द "शुह्रत" होता है जिसे "शोहरत" भी लिखा जाता है इसका वज्न 22 होता है इस लिहाज से मिसरा बाबह्र है


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 23, 2013 at 4:53pm

वाह आदरणीय संदीपजी एक और खूबसूरत ग़ज़ल बहुत बढ़िया
//जानते हैं फल में कीड़े कब लगे
इस कदर फिर हम भी मीठे क्यूँ रहें// बहुत खूब दिली दाद कुबूल करें,


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 23, 2013 at 11:12am

आदरणीय सन्दीप भाई , बहुत अच्छी गज़ल कही है बधाई , सलीम भाई सही कह रहे है , दोनो मिसरों को देख लीजिये ,

दौड़ है सोहरत की पीछे क्यूँ रहें - इस मिसरे मे मात्रा भी देख लें  !

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